बिकता नहीं हूँ मैं किसी के चौखठे कभी;
तू खरीद ले मुझको तेरी औक़ात नहीं है।
गुलशन पवन चमन बहारों से मुझको क्या;
वतन छोड़ दूँ ऐसे अभी हालात नहीं है।
स्याही खूँ तो ये कलम तलवार है मेरी;
सच्चाई है कोई ग़लत जज़्बात नहीं है।
बाँट देते हो हमको जाति और धर्म से;
इस से बड़ा इस क़ौम पे आघात नहीं है।
लाशों को बेचते हो तुझे शर्म भी नहीं;
शहरी पे पड़ी इस से बड़ी लात नहीं है।
बेचो ज़मीर तुम खरीद लूँगा मैं 'सहर';
कौड़ियों से ज्यादा तेरी औक़ात नहीं है।
~~~~~सचिन रॉय"सहर"~~~~~
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