Saturday, October 24, 2015

एक रचना


बिकता नहीं हूँ मैं किसी के चौखठे कभी; 
तू खरीद ले मुझको तेरी औक़ात नहीं है

गुलशन पवन चमन बहारों से मुझको क्या; 
वतन छोड़ दूँ ऐसे अभी हालात नहीं है

स्याही खूँ तो ये कलम तलवार है मेरी; 
सच्चाई है कोई ग़लत जज़्बात नहीं है

बाँट देते हो हमको जाति और धर्म से; 
इस से बड़ा इस क़ौम पे आघात नहीं है

लाशों को बेचते हो तुझे शर्म भी नहीं; 
शहरी पे पड़ी इस से बड़ी लात नहीं है

 बेचो ज़मीर तुम खरीद लूँगा मैं 'सहर'; 
कौड़ियों से ज्यादा तेरी औक़ात नहीं है

 ~~~~~सचिन रॉय"सहर"~~~~~

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