Sunday, December 08, 2013

एक कविता



 फूल-फूल, पत्ते-पत्ते से पूछे सजन किधर है।
 
मन मेरा आवारा बादल, घूमे इधर-उधर है,
फूल-फूल, पत्ते-पत्ते से पूछे सजन किधर है।
इंतज़ार कर-कर के आँखें कब की निचुड़ गईं,
हृदय की धमनी धड़क-धड़क कर देखो सिकुड़ गईं,  
न चिठिया न कोई पाती, न ही कोई ख़बर है,
फूल-फूल, पत्ते-पत्ते से पूछे सजन किधर है।

तुम बिन मेरे जीवन में सब-कुछ है मुरझाया सा,
रात अगर बेचैन रही तो दिन भी है बौराया सा,
भूल गया हूँ अपनी मंजिल, खोई हुई डगर है,
फूल-फूल, पत्ते-पत्ते से पूछे सजन किधर है।

चीड़ वनों की मदमाती गंधों ने तुमको याद किया,
झरनों के कल-कल निनाद ने तुमसे है फरियाद किया,
तुम बिन जो मेरा है वो ही उनका भी हुआ हसर है,
फूल-फूल, पत्ते-पत्ते से पूछे सजन किधर है।

ठंडी मस्त बयारों ने भी कह दिया मुझको मेरा हाल,
जीव-जंतु सब प्राणी की आँखों से झाँके यही सवाल,
कौन है वो शमा जिस पर तू जलता रोज़ भ्रमर है,
फूल-फूल, पत्ते-पत्ते से पूछे सजन किधर है।

तुम ही मेरे हो अपने एक बाकी सभी पराये हैं,
कुछ उखड़े-उखड़े से हैं, और कुछ कतराए हैं,
रूठी हुई हवा है तुम बिन, रूठा हुआ शजर है,
फूल-फूल, पत्ते-पत्ते से पूछे सजन किधर है।

तस्वीरों से दिल बहलाता माजी में मैं जीता हूँ,
यादों के धागों से मैं तो चाक-जिगर को सीता हूँ,
तुम बिन जीवन सूना-सूना, जैसे कोई कहर है,
फूल-फूल, पत्ते-पत्ते से पूछे सजन किधर है।

अब तो आ जाओ कि मेरे जीवन को श्रृंगार मिले,
चिड़ियों को मीठी तान और फूलों को फिर बहार मिले,
तुमसे ही तो शाम है मेरी, और तुमसे ही हुआ सहर है,
फूल-फूल, पत्ते-पत्ते को कह दूँ सजन इधर है।
-नीहार

 

Sunday, December 01, 2013

हरि अनंत हरि कथा अनन्ता : भाग ३

राँची पार्टी
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                 मेरे पिताजी रेलवे में काम करते थे। बरौनी में रहने के कारण छुट्टियों में मेरा घर आना तो पटना पार्टी से चाहिए था परन्तु मुफ्त पास सुविधा उपलब्ध होने के कारण मैं राँची पार्टी से आता था। हटिआ-पटना शाम में पकड़कर पटना और वहाँ से बरौनी। मैंने भी कभी विरोध नहीं किया क्योंकि राँची में मैटनी शो देखने की सुविधा मिली हुई थी। मेरे बैच का अरुण झा (४०) भी ऐसा ही करता था। क्योंकि उसके पिताजी भी रेलवे में थे और दानापुर में पोस्टेड थे। एक और भी कारण था , जिसके लिए राँची पार्टी ही उपयुक्त थी। मुझे बस में चक्कर बहुत आते थे और शुरू में गया पार्टी से जाने के दौरान मैं केवल उल्टियाँ ही करता रह जाता था। गया पार्टी इसलिए क्योंकि मेरे मामाजी गया में एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज ऑफिसर थे और शाम में मुझे और मेरे ममेरे भाई को मुफ्त सिनेमा दिखाते थे। 

               1971 या 1972 की बात है एक बार घर से लौटते समय पटना-हटिआ लेट हो गयी और जब तक मैं बिनोद आश्रम होटल पहुँचा राँची पार्टी की बस जा चुकी थी। मैं घबरा गया। एक भारी काला बक्सा लिए अब क्या करूँ ? बिनोद आश्रम होटल के प्रबंधक ने बताया की तुम रिक्शा पकड़कर रातू रोड चले जाओ वहाँ से तुम्हे एक बस -------(नाम याद नहीं है ) पहुँचा देगी। वहाँ उतर जाना। सामने तिराहा है वहाँ से गया और पटना पार्टी की बसें निकलेंगी उनसे नेतरहाट चले जाना। डूबते को तिनके का सहारा जैसे मिला। मैं निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गया। भूख के मारे बुरा हाल था। सामने दूकान से पार्ले ग्लुकोज बिस्कुट का पैकेट लेकर खाया। अँधेरा घिरने लगा था और मेरे अंदर का डर भी। हर बस की तरफ आशा भरी निगाह से देखता था। लेकिन कोई मदद की किरण नहीं। समय बीतता जा रहा था और मेरे दिल की धड़कने बढ़ती जा रही थी। क्या करूँ या क्या न करूँ की उधेड़बुन में लगा था कि अचानक ऐसा लगा कि बस नेतरहाट की है बच्चे दिख रहे थे मैंने हाथ हिलाया बस नहीं रुकी मैं चिल्लाने लगा - मेरे सामने से दूसरी बस निकली मेरे हाथ हिलाने को नज़रअंदाज़ करती हुई। फिर एक के बाद एक बसें मेरे हाथ हिलाने को विपक्ष की चाल समझती हुई निकल गयी और मैं उसी दिशा में देखता रहा शायद कोई बस आ जाये ------- उसके बाद मैं निढाल होकर तिराहे पर बैठ गया। आँखों में आँसू आ गए थे। थके क़दमों से मैंने तिराहे की चाय की दुकान पहुँच कर पानी पिया।

                दुकानदार से अपनी परेशानी बतायी। उसने मुझे ढाढ़स बँधाया। कहा कि यहाँ से ट्रक राजा डेरा को जाती है। किसी ट्रक ड्राईवर से बात कर लो तुम्हें पहुँचा देगा। अंधे को क्या चाहिए दो आँखें। मैं नेतरहाट की तरफ जानेवाली ट्रकों को रोक कर बातें करने लगा। एक ट्रक वाले ने मुझे बैठा लिया और करीब पाँच मील आगे जाकर रोक दिया और कहा कि रात हो गयी है। अब सुबह चलेंगे तुम हमारे साथ झोपड़ी में सो जाओ। मैं डर रहा था, लेकिन मेरे पास और कोई  चारा भी नहीं था। मैं माँ के दिए ठेकुए को खाकर चादर ओढ़कर सो गया। करीब तीन बजे उन लोगों ने उठाया और ट्रक पर चढ़ने को कहा। मैं काला बक्सा लेकर चढ़ गया। सोते जागते मैं बनारी तक पहुँचा, तब मेरे चेहरे की रंगत लौटने लगी। कोयल इतनी खूबसूरत मुझे कभी नहीं लगी थी। घाट पर चढ़ाई शुरू हो चुकी थी, राजाडेरा का मोड़ आ गया। ड्राईवर ने मुझे वहीँ उतार दिया। मेरे कितना भी कहने पर उसने कोई पैसे नहीं लिए (उसके बाद लगता है भगवान ने अच्छे ट्रक ड्राईवर बनाने बंद कर दिए )

                मगर पर अभी समस्या ख़त्म नहीं हुई थी। अब क्या करूँ? तभी कोई कंधे पर डंडा लिए जाता दिखाई दिया। उसने मेरी समस्या सुनी। बक्सा उठाकर हाथों से उसे तौला। पूछा चादर है ? मैंने मुंडी हिलायी तो वह ख़ुश हो गया। बीच सड़क पर उसने चादर को दो भागों में मुझसे पूछकर फाड़ा। आधा-आधा सामान दोनों में बाँधा, लाठी के दोनों तरफ एक-एक को लटकाया और मुझसे खाली बक्सा लेकर चलने को कहा। हम चलने लगे। कुछ दूर बाद सामने कि पहाड़ी पर आचार्य नगरी दिखाई दी। हम धीरे धीरे पहाड़ी चढ़ने लगे। उसने अरुण आश्रम तक मुझे पहुँचाया। एक बार फिर उसने भी कोई पैसे नहीं लिए तो मुझे लगा कि मेरे हनुमान चालीसा पढ़ने पर खुद बजरंग बली यहाँ तक छोड़ गए हों। मैं आश्रम में आकर ऐसे घुला मिला की किसी को पता ही नहीं चला कि मैं सुबह आया हूँ। को नहीं जानत है जग में -------

कुंदन कुमार 

अरुण आश्रम 1968-75 


Saturday, November 23, 2013

"हरि अनंत हरि कथा अनन्ता "- भाग २



इस कथा का पहला भाग "स्वावलम्बन" आप पढ़ चुके हैं, अब प्रस्तुत है दूसरा भाग--"घ"

'घ' एक अक्षर नहीं एक पूरा ग्रन्थ है -इस पर प्रकाश कोई हाटियन ही डाल सकता है और यह प्रकाश भी इतना रंग बिरंगा होगा कि आँखें चुंधिया जाएँगी और मस्तिष्क पर इसके प्रभाव से मुहँ से लार टपकने की भी सम्भावना है।

उन दिनों अरुण आश्रम के आश्रमाध्यक्ष स्वर्गीय श्री सहदेव प्रसाद सिंह देव जी थे। माताजी किचन की प्रबंधक थी। विनोदजी जो आश्रम प्रभारी थे भोजनालय में किनारे वाली जगह पर बैठते थे और जैसे ही खाने में कोई नुक्स निकलता था सीधे उठकर किचन में जाते थे। उनकी यह अदा मुझे बहुत पसंद थी। मैं जब आश्रम प्रभारी बना तो मैंने उनकी इस अदा को कई बार दोहराया। इस से भोजनालय में मेरा रोब - दाब स्थापित हो गया था जिसका मैंने कई बार फायदा उठाया। जैसे अपने लिए नाश्ते में कच्चा अंडा ले लेना और जब दो तीन इकठ्ठे हो जाएँ तो वहाँ जाकर मोटा आमलेट बनवाना , या उबले अंडे को फ्राई करा के खाना।

 

एक बार खिचड़ी खाने में थी- कुछ धुंएं कि गंध आ रही थी , मैं सीधे किचन में गया। मुझे लेकर आश्रम सेवक माताजी के पास पहुंचा। उस समय श्रीमती डे के हाथों में किचन का प्रबंध आ गया था और मैं उनके पास बहस कर रहा था। श्रीमानजी शांति आश्रम के आश्रमध्यक्ष थे और अरुण तथा शांति आश्रम के आश्रमध्यक्षों के निकलने के पीछे वाले रास्ते पर हम खड़े थे जहाँ से सामने की सड़क दिखती थी। अचानक श्रीमती डे रोने लगीं और मुझसे कहने लगीं मैं इतनी मेहनत करती हूँ और तुम लोग केवल नुक्स निकालना जानते हो। मैं इस दृश्य परिवर्तन पर दिग्भ्रमित हो गया - लेकिन मेरी साँसे अटक गयी जब मैंने प्राचार्य श्री बी के सिन्हा जी को अंदर आते देखा। मुझे दृश्य परिवर्तन का कारण समझ आ गया था। उन्होंने माताजी को चुप कराया-मुझे डांटा और फिर खिचड़ी सूंघी और कहा -थोडा स्मोकी है पर खाने लायक है। मैं मुहँ लटकाये वापस आ गया।मुझे विनोदजी कि अदा दुहराना काफी महंगा पड़ चुका था। लीजिये बात कहाँ कि हो रही थी कहाँ चले आये। 

 

 रविवार का दिन और विशेष भोजन - किसी हाटियन से इसके बारे में पूछकर देखिये - कैसे आ जाती है उसकी आँखों में चमक। उस विशेष भोजन के दिन “घ” का खाका हमारे अग्रजों ने तैयार कर रखा था। खाना शुरू हुआ -छोटे बच्चे लोग उठ गए थे -चार पांच लोग बैठे थे। आटा दूसरी बार गूँधा जा रहा था -अब केवल पूरी और पानी मिली सब्जी ही थी - पर “घ” जारी था- श्रीमानजी एक बार चक्कर लगा गए थे - जाड़े के दिन थे इसलिए भोजन सबका आँगन में हो रहा था - हमारे आश्रम में रविवार को कई बार ऐसा ही किया जाता रहा था। करीब चार बजे के बाद भोजन खत्म हुआ। या खत्म कर दिया गया। 

 

असली कहानी अब शुरू होती है। हमलोगों को कुछ पता नहीं था। हमलोग केवल “घ” कि महत्ता पर चर्चा में व्यस्त थे। रात्रि के स्वाध्याय में कुछ लोग बार बार लघु शंका करने जाने लगे। मेरे बगल में सुदर्शनजी बैठे थे। मुझे लगा जब वे बहार से अंदर आते हैं तो उनकी आँखों में चमक बढ़ जाती है जैसे कोई बिल्ली मलाई चाट कर लौटी हो। मैं भी बाहर गया। मुझे कुछ पता नहीं चला। सुदर्शन जी फिर बाहर आये मुझसे पूछा क्या ढूंढ रहे हो - शौचालय तो उधर है -मैंने कोई बहाना बना दिया- हम चेंजिंग रूम के सामने खड़े थे। मेरे मन में शक़ का कीड़ा कुलबुला रहा था -मैं फिर बाहर आया। सुदर्शनजी फिर आ गए - बोले पूरी खानी है -बिना मेरा उत्तर सुने वे मुझे चेंजिंग रूम में ले गए और एक आलमारी खोल कर पूरी और इमली कि चटनी खाने को दिए। मैं अवाक् रह गया। करीब आठ बजने वाले थे,स्वाध्याय के दौरान ही श्रीमानजी ने विनोद जी को बुलाया। फिर जब वे लौटे तो तो सुदर्शनजी का बुलावा आ गया था। मुझे भी बुलाया गया। मैं आश्रमाध्यक्ष के कमरे के बाहर खड़ा था-अंदर से देवजी की आवाज आ रही थी-सुदर्शनजी अंदर थे -पूरी खाते हो और एक जोरदार चांटे की आवाज़ - मैं अपना गाल सहलाने लगा था। मेरा बुलावा आया - मैंने पार्टी बदल ली और श्रीमान जी को बता दिया पूरी कहाँ रख़ी है। श्रीमान जी ने उसे बरामद करवाया। काफी दिनों तक हमें जबर्दस्ती “घ” से परहेज करना पड़ा।

कुंदन कुमार 

अरुण आश्रम 1968-75 


Saturday, October 26, 2013

स्वावलंबन



      नेतरहाट में स्वावलंबन पर काफी जोर था।  आश्रम के सामने की सड़क गीली हो गयी तो रविवार को मोरम लाकर खुद ही बिछा दिया। बाकी  आश्रम के काम  तो हम खुद करते ही थे। हाई स्कूल की परीक्षा की तैयारी में हम लगे थे।  हमारे आश्रमाध्यक्ष  उन दिनों डॉ मिथिलेश कान्ति जी थे।  लौकी के फूलों में खुद ही परागण करते थे।  विद्यालय से आते जाते रास्ते में ही कई पुस्तकें पढ़ जाते थे।  हमें अक्सर कहते थे कि उन्होंने कई लोगों के विवाह करवाए थे

 

      हमलोगों के बाल कुछ बढ़ चले थे। वे कई बार हमें टोक चुके थे। एक बार उन्होंने कहा कि समय नहीं हो तो खुद ही काट लो। हमलोगों की कान पर  फिर भी जूँ नहीं रेंग रही थी। एक बार आँगन में मैं और ज्योति बैठे थे , पता नहीं वह कहाँ  से एक कैंची और कंघी ले आया और कहा ठीक से बैठो।  जबतक मैं कुछ सोच पता उसने मेरे बाल काटने शुरू कर दिए। पहले अटपटा लगा फिर मैंने भी कटवा ही लिए। फिर कुर्सी पर  खुद ही बैठ गया और कहा मेरे भी काटो। मैंने कहा कहीं गड़बड़ हो गया तो ? अरे अपनी ही खेती है नाई  जी से ठीक करवा लेंगे।  मैं भी शुरू हो गया और काट  ही डाले उसके बाल। 

 

      अपनी पहली रचना मुझे बड़ी अच्छी लगी। अब दूसरा मुर्गा कहाँ ? महेंद्र (६६) कुछ पूछने आया तो उसने आँगन में बाल देखे और पूछा क्या नाई  जी आश्रम आकर काटने लगे हैं? हमने कहा हाँ ! तुम बैठो तुम्हारा भी कटवा देते हैं। वह बैठ गया जब मैंने उसके बाल काटने शुरू कर दिए तो वह भागने लगा। मैंने कहा हिलो नहीं कान  कट गया तो मैं ज़िम्मेदार नहीं होऊंगा।  वह डरकर बैठ गया।  ज्योति उसका उत्साह वर्धन कर रहा था। मेरी दूसरी रचना निकल कर गयी थी। बाथरूम के पास आईने में उसने  कई बार अपने को निहारा फिर आधी नाराज़गी से कहा तुम लोगों  ने मेरा  बाल ख़राब कर दिया है। अब ज्योति की बारी थी।  बुधराम जी किचन से अन्दर आये तो बाल देखकर चौंके।  यह क्या है ? मुर्गा सामने था - सूली भी थी - हमलोगों ने चारा डाला और अपने बाल दिखाए महेंद्र (६६) को देखकर वे कुछ आश्वस्त हुए। हमलोगों ने अपना कारनामा लिखकर नोटिस बोर्ड पर  टांग दिया। हमारे कितने प्रलोभनों के बाद भी कोई तैयार नही हुआ।  और हाँ हमलोगों ने बुधराम जी को बाल  कटवाने के एवज  में पंचायत कैन्टीन से बालूशाही खिलाई।

 

      इस घटना का जिक्र मैंने अपने गाँव की यात्रा के समय अपने एक मित्र से किया। उनको विश्वास नहीं हुआ।  गाँव की तहसील वाले नाई की मशहूर दुकान थी। वहां हमलोग गए और मैंने उसे अपनी मंशा बताई। वह मुझे पिछले २० सालों से जानता  था। फिर भी उसने मुझे संशय  की निगाह से देखा। मेरे मित्र की दाद  देनी होगी  की वे तैयार हो गए। मेरा काम देखकर नाई  प्रसन्न हो गया और बोला : अरे आप तो पेट काट  देते हैं तो बाल  क्या चीज़ है। मेरे मित्र ने पूछा  बताइए बाल काटने और सर्जरी करने में क्या अंतर है?  मैंने हँसते हुए कहा मैं बालों की सर्जरी ही कर रहा हूँ।  हाँ ! सर्जरी में ज्यादा  काटने का रिस्क नहीं ले सकते और यहाँ दो चार बाल एक्स्ट्रा कट गए तो कोई फिक्र नहीं। ज्यादा क्या पूरा  साफ़ भी हो गया तो फिर जायेगा पर  आदमी के अन्दर जो गया तो गाना होगा : जो चला गया उसे भूल जा ---



कुंदन कुमार

अरुण आश्रम 1968-75