Friday, October 16, 2015

अथ श्रीदुर्गाप्रणति:




ध्यानम्
 
सर्वम् ओमलये देवी सृष्टि छन्दानुवर्तिनी।
गायन्तं त्रायते नित्यं लोल जिह्वा लम्बिनी।।
पातु विश्व विराट रूपं जगद् नन्दनकारिणी।
हे पराम्ब! रक्षतु न: पाप-पुण्य विमर्शिनी।। 

पर्वसु -परिपावनी अनिकेत- कन्दरवासिनी।
शिला-शील -सुशैलवर्त्तिनी प्रतिगृहं प्रतिरक्षतु।।१।।

ब्रह्मवादिनी ब्रह्मविद्या ब्रह्मचारिणी रक्षतु।
त्वम् एकाकिनी शक्तिरसि न:पालयति सर्वं जगत्।।२।।
 
चन्द्रिका चन्द्रघण्टाया: चारुचन्दन- चर्चिता।
श्रोत्रप्रियेण नादेन सर्वान् रक्षतु सर्वत:।।३।।

 कुविचारापहा देवी कूष्माण्डेति प्रकीर्तिता।
ये कुमार्गरता: नित्यं तेभ्यो देहि मतिं वराम्।।४।।
 
स्कन्द-नन्दिता माता कलुष कल्मष नाशिनी।
कारुण्यरुपिणी देवी दुष्ट-दृष्टि निरोधिनी।।५।।
 
ऐहिक-सौभाग्य लाभाय आयुरारोग्य-दायिनी।
गृहस्थै: कात्यायनी ध्येया सर्वारिष्ट-विनाशिनी।।६।।
 
कलनात् काल:तस्मात् या कालीति प्रख्यापिता।
प्रत्याह्रियन्ते भूतानि यस्यां तां नौमि नित्यदाम्।।७।।
 
शृंगे वसन्ती पश्यन्ती गौरीति विश्रुता भुवि।
तां ये स्मरन्ति भावेन केभ्यो चापि न बिभ्यति।।८।।
 
नवरुपेषु तिष्ठन्ती सिद्धिदा या प्रतिष्ठिता।
राधये त्रिगुणातीतां मातरं लोकमातरम्।।९।।
 
स्तोत्रमिदं य: पठति पुमान स: कारुण्यभावेन वशीकरोति।
अरिं च मित्रं च परं तु विश्वं विजित्य नित्यं भवति कृतार्थ:।।१०।।
 
कात्यायनगोत्रोत्पन्नेन श्रीमन्नारायणसूनुना।
विन्ध्याचल नामधेयेन देव्यै तु समर्पितम्।।
 
*** मधुपर्क:

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