Sunday, September 15, 2013

नेतरहाट की वो पहली शाम - एक संस्मरण





डॉ. कुंदन कुमार ने मुझसे नेतरहाट का कोई संस्मरण लिखने को कहा है बहुत सोचने के बाद भी समझ में नहीं आ रहा है कि किस संस्मरण को ख़ास कह सकता हूँ20 अक्तूबर 1963 से 18 मई 1969 - कुल 3,027 दिन, 72,648 घंटे 43,58,880 मिनट,  26,15,32,800 पल - सारे के सारे एक जैसे मिठास से ओत-प्रोत हैं भले ही समय बीतता जा रहा हो मगर एक सशक्त प्रकाश स्तम्भ की तरह उन सुनहरे पलों की रोशनी जीवन के रस्ते पर चमकती रहती है... उनकी जगमगाहट कभी कम नहीं हुई है

आज आधी सदी बीत जाने के बाद भी वो एक लम्हा मेरे मन के यू tube में अभी भी लगभग वैसे ही 'रिकार्डेड' है20 अक्तूबर 1963 की शाम, जब मैंने पहली बार नेतरहाट की ज़मीं पर कदम रखा था। एक ओर घर छोड़ने की उदासी थी तो दूसरी ओर छात्रावास में हो सकने वाली परेशानियों का ख़याल आ रहा था। मन एक दम विचलित था किसी कारण मैं देर से दाखिले के लिए आया था माँ मुझे छोड़ने आई थी श्रीमान जीवन नाथ दर जी जो प्रधान जी थे, उन्होंने बड़े सम्मान के साथ हमें शैले में ठहराया। उन्होंने बताया कि थोड़ी ही देर बाद कैम्प फायर होने जा रहा था, जिसमें विद्यालय के बच्चे मनोरंजन कार्यक्रम प्रस्तुत करने जा रहे थेउन्होंने हमें भी साथ चलने का अनुरोध किया

जब तक हम 2 नंबर मैदान पर पहुँचे अँधेरा छा चुका था और आसमान तारों से खचाखच भर चुका था। हवा में पर्याप्त ठंढक व्याप्त हो चुकी थी और मैंने अपनी माँ का आँचल कसकर पकड़ रखा था। मन में अनगिनत आशंकाएँ उमड़-घुमड़ रही थी। फिर थोड़ी ही देर में विद्यालय के बालक आने शुरू हो गए और साथ-साथ ही उनका कोलाहल बढ़ने लगाजब मैदान में कैम्प फायर की लकडियाँ जलीं तो मद्धिम पीला प्रकाश फैल गया और अँधेरा थोड़ा कम हो गया बाहर का भी और अन्दर का भी। फिर कार्यक्रम शुरू हुआ और एक के बाद एक प्रस्तुतियाँ होने लगीं। पूरा मैदान विद्यार्थियों के ठहाकों और टिप्पणियों से गूँजने लगा360 विद्यार्थियों से आने वाला सामूहिक कम्पन मेरे मानस-पटल पर ज़बरदस्त असर डाल रहा थाधीरे धीरे माँ के आँचल की पकड़ कमजोर पड़ने लगी।

अंततोगत्वा जब किशोर जी आये थे (वो 6thyear के थे) तो पूरा मैदान उनके स्वागत में झूम उठाऔर उन्होंने निराश नहीं किया था। उस समय की 'हिट' संगम का गाना ' महबूबा तेरे दिल के पास ही है मेरी मंजिले मकसूद' का रेकोर्ड जब उन्होंने उल्टा कर बजा दिया था। अनोखा स्वाद था वह – जब उन्होंने 'ओ बाबुहमे, रेते लदी के सपा ही है रिमे जिलेमन दसुकम' गाया तो बाकी विद्यार्थियों के साथ-साथ मैं भी झूम उठा और तालियाँ बजा रहा था। उस पल एक बड़ी और महत्त्वपूर्ण घटना हुई।

मैंने माँ का आँचल छोड़ दिया और उस पल से ही विद्यालय परिवार का हिस्सा बन गया


मेरे अन्दर संकोच, दब्बूपन और एक प्रकार की हीन भावना बचपन से ही हावी रही थी। आज जब मैं उस शाम को याद करता हूँ तो यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है - वो मेरे जीवन का वो लम्हा था, जब मेरे अन्दर बदलाव शुरू हो गया था - एक ऐसा बदलाव जिसने आने वाले वर्षों में मेरे जीवन की दिशा बदल दी

फिर याद आती है नेतरहाट की पहली बारिश। बादलों को अपने पास से आते हुए पहली बार देखा था बारिश बंद होने के बाद विद्यालय से लौटते हुए दूर धुली हुई पहाड़ों की चोटियाँ, नजदीक वाली हरी और दूर वाली क्रमशः नीली होती गयी थीं प्रकृति के रंगों का यह खेल पहली बार देखा था याद है मैं थोड़ी देर के लिए रुक गया था मगर उस समय मेरे पास इस अनुभूति को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे


ओवल के मैदान पर पहली बार बीर बहुटियों को देखने का रोमांच आधी सदी गुजर जाने के बाद भी ताजा है चीड़ के पत्तों से गुजरती हवाओं का संगीत आज भी कानो में गूँज जाते हैं। प्रेम आश्रम के कोने की रात रानी मेरे दिल की 'रानी' बनी बैठी है आज तक

जीवन की इस अपराह्न बेला में कभी-कभी ये यादें सहसा ही समय में पीछे खींच ले जाती हैं और अनायास होठों पर आ जाता है


"याद न जाए, बीते दिनों की

जाके न आये जो दिन, दिल क्यूँ बुलाए, उन्हें दिल क्यूँ बुलाए

याद न जाये ...



दिन जो पखेरू होते, पिंजरे में मैं रख देता

पालता उनको जतन से, मोती के दाने देता

सीने से रहता लगाए"
आलोक सिन्हा

Monday, September 09, 2013

चलो चलें हम गाँव की ओर......(एक छंदमुक्त कविता)



कूकत कोयल नाचत मोर,
चाँद बुझा के आ गई भोर।
टिन की छत पे बारिश बूँदें,
दय दय ताल करत हैं शोर।

 जंगल जंगल खबर है फैली,
नर नारी हुये आदमखोर।
आदम की नीयत का नाहीं,
मिलता कहीं ओर या छोर।
 
हर इक को नीचा दिखलाने,
यहाँ लगी है सब में होड़।
प्रगति का लेखा मत देखो,
ये देश चला रसातल ओर।
 
हर नेता भाषण में कहता,
तारे लाऊँ आसमाँ तोड़।
हर अमीर जीता है पी कर,
यहाँ गरीब का खून निचोड़।
 
संसद का मत हाल तू पूछ,
लड़ते हैं सब कुर्सी तोड़।
कौन बड़ा संतों में असंत,
संतों में लगी गई है होड़।
 
टिकट उसे देगी हर पार्टी,
जो चोरों का हो सिरमौर।
देश तरक्की पर है साहब,
रुपया भले हुआ कमजोर।
शहर मिज़ाज बदल चुका है,
चलो चलें हम गाँव की ओर।
              
                                    विजय रंजन "नीहार"