Sunday, December 01, 2013

हरि अनंत हरि कथा अनन्ता : भाग ३

राँची पार्टी
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                 मेरे पिताजी रेलवे में काम करते थे। बरौनी में रहने के कारण छुट्टियों में मेरा घर आना तो पटना पार्टी से चाहिए था परन्तु मुफ्त पास सुविधा उपलब्ध होने के कारण मैं राँची पार्टी से आता था। हटिआ-पटना शाम में पकड़कर पटना और वहाँ से बरौनी। मैंने भी कभी विरोध नहीं किया क्योंकि राँची में मैटनी शो देखने की सुविधा मिली हुई थी। मेरे बैच का अरुण झा (४०) भी ऐसा ही करता था। क्योंकि उसके पिताजी भी रेलवे में थे और दानापुर में पोस्टेड थे। एक और भी कारण था , जिसके लिए राँची पार्टी ही उपयुक्त थी। मुझे बस में चक्कर बहुत आते थे और शुरू में गया पार्टी से जाने के दौरान मैं केवल उल्टियाँ ही करता रह जाता था। गया पार्टी इसलिए क्योंकि मेरे मामाजी गया में एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज ऑफिसर थे और शाम में मुझे और मेरे ममेरे भाई को मुफ्त सिनेमा दिखाते थे। 

               1971 या 1972 की बात है एक बार घर से लौटते समय पटना-हटिआ लेट हो गयी और जब तक मैं बिनोद आश्रम होटल पहुँचा राँची पार्टी की बस जा चुकी थी। मैं घबरा गया। एक भारी काला बक्सा लिए अब क्या करूँ ? बिनोद आश्रम होटल के प्रबंधक ने बताया की तुम रिक्शा पकड़कर रातू रोड चले जाओ वहाँ से तुम्हे एक बस -------(नाम याद नहीं है ) पहुँचा देगी। वहाँ उतर जाना। सामने तिराहा है वहाँ से गया और पटना पार्टी की बसें निकलेंगी उनसे नेतरहाट चले जाना। डूबते को तिनके का सहारा जैसे मिला। मैं निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गया। भूख के मारे बुरा हाल था। सामने दूकान से पार्ले ग्लुकोज बिस्कुट का पैकेट लेकर खाया। अँधेरा घिरने लगा था और मेरे अंदर का डर भी। हर बस की तरफ आशा भरी निगाह से देखता था। लेकिन कोई मदद की किरण नहीं। समय बीतता जा रहा था और मेरे दिल की धड़कने बढ़ती जा रही थी। क्या करूँ या क्या न करूँ की उधेड़बुन में लगा था कि अचानक ऐसा लगा कि बस नेतरहाट की है बच्चे दिख रहे थे मैंने हाथ हिलाया बस नहीं रुकी मैं चिल्लाने लगा - मेरे सामने से दूसरी बस निकली मेरे हाथ हिलाने को नज़रअंदाज़ करती हुई। फिर एक के बाद एक बसें मेरे हाथ हिलाने को विपक्ष की चाल समझती हुई निकल गयी और मैं उसी दिशा में देखता रहा शायद कोई बस आ जाये ------- उसके बाद मैं निढाल होकर तिराहे पर बैठ गया। आँखों में आँसू आ गए थे। थके क़दमों से मैंने तिराहे की चाय की दुकान पहुँच कर पानी पिया।

                दुकानदार से अपनी परेशानी बतायी। उसने मुझे ढाढ़स बँधाया। कहा कि यहाँ से ट्रक राजा डेरा को जाती है। किसी ट्रक ड्राईवर से बात कर लो तुम्हें पहुँचा देगा। अंधे को क्या चाहिए दो आँखें। मैं नेतरहाट की तरफ जानेवाली ट्रकों को रोक कर बातें करने लगा। एक ट्रक वाले ने मुझे बैठा लिया और करीब पाँच मील आगे जाकर रोक दिया और कहा कि रात हो गयी है। अब सुबह चलेंगे तुम हमारे साथ झोपड़ी में सो जाओ। मैं डर रहा था, लेकिन मेरे पास और कोई  चारा भी नहीं था। मैं माँ के दिए ठेकुए को खाकर चादर ओढ़कर सो गया। करीब तीन बजे उन लोगों ने उठाया और ट्रक पर चढ़ने को कहा। मैं काला बक्सा लेकर चढ़ गया। सोते जागते मैं बनारी तक पहुँचा, तब मेरे चेहरे की रंगत लौटने लगी। कोयल इतनी खूबसूरत मुझे कभी नहीं लगी थी। घाट पर चढ़ाई शुरू हो चुकी थी, राजाडेरा का मोड़ आ गया। ड्राईवर ने मुझे वहीँ उतार दिया। मेरे कितना भी कहने पर उसने कोई पैसे नहीं लिए (उसके बाद लगता है भगवान ने अच्छे ट्रक ड्राईवर बनाने बंद कर दिए )

                मगर पर अभी समस्या ख़त्म नहीं हुई थी। अब क्या करूँ? तभी कोई कंधे पर डंडा लिए जाता दिखाई दिया। उसने मेरी समस्या सुनी। बक्सा उठाकर हाथों से उसे तौला। पूछा चादर है ? मैंने मुंडी हिलायी तो वह ख़ुश हो गया। बीच सड़क पर उसने चादर को दो भागों में मुझसे पूछकर फाड़ा। आधा-आधा सामान दोनों में बाँधा, लाठी के दोनों तरफ एक-एक को लटकाया और मुझसे खाली बक्सा लेकर चलने को कहा। हम चलने लगे। कुछ दूर बाद सामने कि पहाड़ी पर आचार्य नगरी दिखाई दी। हम धीरे धीरे पहाड़ी चढ़ने लगे। उसने अरुण आश्रम तक मुझे पहुँचाया। एक बार फिर उसने भी कोई पैसे नहीं लिए तो मुझे लगा कि मेरे हनुमान चालीसा पढ़ने पर खुद बजरंग बली यहाँ तक छोड़ गए हों। मैं आश्रम में आकर ऐसे घुला मिला की किसी को पता ही नहीं चला कि मैं सुबह आया हूँ। को नहीं जानत है जग में -------

कुंदन कुमार 

अरुण आश्रम 1968-75 


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