Monday, September 29, 2014

मैग्नोलिया प्वाइंट से आगे


पछुआ की ताल पर शालवनों के बीच
नर्तन करता उतरता है छत्रधारी बीज सखुए का
दूर पहाड़ों की चोटी पर
नाचता है ढलता लाल-लाल सूरज
गोल-गोल घूमता है
मैग्नोलिया प्वाइंट से आगे
बीच की घाटी में अंधियारा पसरने से पहले
एक दर्दभरी आवाज गूंजती है मैग्नोलिया की
ठिठक जाते हैं शालवन
रुक जाती है कोयल की कल-कल छल-छल धारा
पंछियों की चहचहाहट बन्द है
सैलानी सशंकित
'कहाँ हो तुम गौरांग सुन्दरी!'
तभी दूसरी आवाज़ ढूंढ़ती है
शालवनों से शैले तक गूँजती है
वादियों में वंशी की टेर
महुए के नीचे बैठा है युवा वनवासी
कंथे पर तीर-धनुष
होठों पर वंशी
युगों से पुकारता अपनी सात समन्दर पार की प्रेयसी को
अंधियारा पसरता है घनेरे जंगल में
रजनी का अनन्त साम्राज्य
नक्षत्रों के आलोक में
जुगनुओं के उजास में
होता है दो विरही आत्माओं का मिलन
वनदेवी वन-पुष्पार्घ्य बरसाती
है झरते हैं हरसिंगार और पलाश
मह-मह महकता है महुए का पेड़
दूर कहीं घाटियों में गूँजती है
मांदल की थाप और
करमा का आदिम समवेत स्वर
शालवन झूमता है
कोयल की कल-कल छल-छल धारा का
नर्तन होता है लोअर घाघरी मे
एक नया संसार रचता है स्रष्टा
सूरज ढलने के बाद
मैग्नोलिया प्वाइंट से आगे -------

***Rajeev Kumar Singh***

(विद्यालय में पंचम वर्ष (मार्च १९७०) में रचित एक कविता)

Tuesday, September 16, 2014

भैंस की महिमा – गीता की महिमा





वह भैंस है  
पागुर करती है  
पता नहीं कौन सी,
मगर,
कोई गीता उसने सुनी है
वक़्त के पहले भाग्य से ज़्यादा किसी को कभी कुछ नहीं मिलता
उसने कोई "गीता सार" सुन लिया है  
दुनिया उसे दुहती है,
उसके बेटे को गाड़ी में,
बेटी को खेत में जोतती है  
लोग उसकी खाल उधेड़ते हैं,
बोटी-बोटी कर खा जाते हैं
उसने सूँघा है कोई गीता ब्रांड क्लोरोफोर्म –
तभी वह पागुर करती है,
स्वीकार करती है दोहन, मरण, जीवन
गीता की महिमा –
वह भैंस है और उसे यह बोध भी नहीं –
होने का या नहीं होने का  
दूर बीन बजती रहे,
वह सिर्फ पागुर करती रहेगी -भैंस रहने तक

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