Sunday, November 02, 2014

हरि अनंत हरि कथा अनन्ता : भाग : 9




नाट्य संध्यायें
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हमारे नेतरहाट प्रवेश के एक साल बाद हमारे आश्रमाध्यक्ष स्वर्गीय श्री देव जी ने घोषणा की कि हर शनिवार को आश्रम में सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जायेगा। सभी से पूछा गया था कि कभी नाटकों में भाग लिया है। मैंने गढ़हरा के अपने विद्यालय में तीन नाटकों में भाग लिया था और एक कहानी का नाट्य रूपांतरण किया था "थानेदारी से इस्तीफा"। यह सुनकर नाट्य संध्याओं की ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर डाली गयी। हमलोग अपनी स्वरचित कवितायें बनाते और सुनाते, छोटी एकाँकी प्रस्तुत करते। विनोद जी (३४२) बालों में कंघी इस प्रकार करते कि सामने एक घोंसला सा बन जाता। एक बार किसी बात पर उन्होंने हमलोगों को बहुत डांटा और उस शनिवार की कविता में उस घोंसले का ज़िक्र आया एक स्वरचित कविता में। विनोद जी देव जी के सामने तो कुछ नहीं बोले पर बाद में एक लताड़ लगायी। एक बार मैंने, शरदेन्दु और शरत ने मिलकर एक स्वरचित एकाँकी प्रस्तुत की थी 'एक पेश' शुरू में बत्तियाँ बुझा दी गयीं और बिपिन और राजबल्लभ को चौकी के नीचे से टोर्च जलIने को कहा गया था। केवल शीर्षक पर और प्रस्तुति पर तालियाँ बजीं और देव जी की ओर से शाब्बाशी मिली। कथ्य याद नहीं, या कथ्य कुछ था ही नहीं। राजबल्लभ को धर्मयुग में छपे चुटकुले पढ़ने को कहा गया था। एक चुटकुला मुझे आज भी याद है। 

एक ग्राहक पान की दुकान पर पहुँचा। पाँच पैसे देते हुए बोला, “एक मीठा पान देना।” फिर बोला, “उसमें इलायची डाल देना।” दुकानदार किसी दूसरे का पान लगा रहा था। कान खुजाते वह फिर बोला, “एक लोंग और गुलकंद भी।” थोड़ी देर बाद बोला, “इसमें सौंफ भी डाल देना।” दुकानदार ने कहा, “आप कहें तो आपके पाँच पैसे भी डाल दूँ।” 
  
यह सिलसिला तब बंद हुआ जब अरुण आश्रम की और से “बर्फ की मीनार” नाटक खेलने का फैसला हुआ। कमलेश जी नायक, शरदेन्दु नायिका, मुझे आया की भूमिका मिली। मेरे साथी काफी दिनों तक मुझे चिढ़ाते रहे। रसायन के एक नए शिक्षक आये थे, ए. बी. सिन्हा जी। अभी कुँवारे ही थे। जब उनकी शादी हुयी, तो हमारी कक्षा में यह चुटकुला प्रसिद्ध था : माता जी ने श्रीमानजी को बक यंत्रों (रेटॉर्ट) की माला पहनाई। वे भी मेरी इस भूमिका का जिक्र कर हँसते थे। अगले साल फिर अरुण आश्रम की ओर से नाटक खेला गया। जिसमें पृष्ठभूमि में एक झरना था। ज्योति और मसूद रब प्रहरी बने थे –  मुँह में पानी रखे थे। जब तस्वीर के झरने पर अंजुरी लगा उन्होंने कुल्ला किया तो काफी तालियाँ बजी। मुझे और गिरिराज को परिचारिका की भूमिका दी गयी थी। जिससे मैं इतना गुस्से में था कि मैंने आँचल इस प्रकार खींच रखा था कि चेहरा न दिखे और अपनी भूमिका के बाद पार्श्व में टार्ज़न की नई पुस्तक पढ़ने में अपना समय बिताता था। देव जी यह बात ताड़ गए थे।
 
अगली बार विद्यालय दिवस पर 'खाली साहब' नाटक खेला गया। सभी आश्रमों से पात्र लिए गए थे। प्रिय मोहन सहाय नायक, ऋतुराज नायिका, विनय सह भूमिका में और मैं प्रॉम्पटर। बड़ा ही लोकप्रिय नाटक था। हम जब इण्टर में पहुँचे तब यह दुबारा खेला गया था। चूँकि नायक और नायिका दोनों इण्टर में विद्यालय में नहीं थे, अतः मसूद रब को नायक बनाया गया था। हमारे चतुर्थ वर्ष में पहुँचते ही एक नाटक का रिहर्सल शुरू हुआ, जिसमें मैं नायक, गिरिराज नायिका और बिपिन और एक कोई और हमारे बच्चे बने थे। इसी साल देव जी के आश्रमाध्यक्ष का काल ख़त्म हो रहा था और धर्म के प्रति उनका रुझान बढ़ रहा था अतः यह नाटक खेला नहीं जा सका। देव जी एक मंझे हुए निर्देशक थे। हर भाव को वे खुद करके दिखाते थे। मुझे गर्व है कि ऐसे निर्देशक से कुछ सीखने को मिला, जिसका प्रयोग मैंने मेडिकल कॉलेज में पाँच साल तक वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में निर्देशक बनकर किया।
 
इसके अलावा हमारे सीनियर बैच की ओर से "पन्ने फड़क उठे" नाटक खेला गया था, जो स्वरचित था। इसके अंत में जब लेखक निर्देशक काला ओवरकोट, काली पैंट, काला हैट और काला चश्मा लगा मंच पर आये तो जोरदार तालियाँ बजी वैसे बजनी तो सीटियाँ थीं। उसी बैच ने एक ऑर्केस्ट्रा प्रस्तुत किया, जिसमें ऑर्केस्ट्रा सञ्चालन (झूठा ही सही) मजेदार था।

*** डॉ. कुंदन कुमार