Saturday, October 24, 2015

एक रचना


बिकता नहीं हूँ मैं किसी के चौखठे कभी; 
तू खरीद ले मुझको तेरी औक़ात नहीं है

गुलशन पवन चमन बहारों से मुझको क्या; 
वतन छोड़ दूँ ऐसे अभी हालात नहीं है

स्याही खूँ तो ये कलम तलवार है मेरी; 
सच्चाई है कोई ग़लत जज़्बात नहीं है

बाँट देते हो हमको जाति और धर्म से; 
इस से बड़ा इस क़ौम पे आघात नहीं है

लाशों को बेचते हो तुझे शर्म भी नहीं; 
शहरी पे पड़ी इस से बड़ी लात नहीं है

 बेचो ज़मीर तुम खरीद लूँगा मैं 'सहर'; 
कौड़ियों से ज्यादा तेरी औक़ात नहीं है

 ~~~~~सचिन रॉय"सहर"~~~~~

Friday, October 16, 2015

अथ श्रीदुर्गाप्रणति:




ध्यानम्
 
सर्वम् ओमलये देवी सृष्टि छन्दानुवर्तिनी।
गायन्तं त्रायते नित्यं लोल जिह्वा लम्बिनी।।
पातु विश्व विराट रूपं जगद् नन्दनकारिणी।
हे पराम्ब! रक्षतु न: पाप-पुण्य विमर्शिनी।। 

पर्वसु -परिपावनी अनिकेत- कन्दरवासिनी।
शिला-शील -सुशैलवर्त्तिनी प्रतिगृहं प्रतिरक्षतु।।१।।

ब्रह्मवादिनी ब्रह्मविद्या ब्रह्मचारिणी रक्षतु।
त्वम् एकाकिनी शक्तिरसि न:पालयति सर्वं जगत्।।२।।
 
चन्द्रिका चन्द्रघण्टाया: चारुचन्दन- चर्चिता।
श्रोत्रप्रियेण नादेन सर्वान् रक्षतु सर्वत:।।३।।

 कुविचारापहा देवी कूष्माण्डेति प्रकीर्तिता।
ये कुमार्गरता: नित्यं तेभ्यो देहि मतिं वराम्।।४।।
 
स्कन्द-नन्दिता माता कलुष कल्मष नाशिनी।
कारुण्यरुपिणी देवी दुष्ट-दृष्टि निरोधिनी।।५।।
 
ऐहिक-सौभाग्य लाभाय आयुरारोग्य-दायिनी।
गृहस्थै: कात्यायनी ध्येया सर्वारिष्ट-विनाशिनी।।६।।
 
कलनात् काल:तस्मात् या कालीति प्रख्यापिता।
प्रत्याह्रियन्ते भूतानि यस्यां तां नौमि नित्यदाम्।।७।।
 
शृंगे वसन्ती पश्यन्ती गौरीति विश्रुता भुवि।
तां ये स्मरन्ति भावेन केभ्यो चापि न बिभ्यति।।८।।
 
नवरुपेषु तिष्ठन्ती सिद्धिदा या प्रतिष्ठिता।
राधये त्रिगुणातीतां मातरं लोकमातरम्।।९।।
 
स्तोत्रमिदं य: पठति पुमान स: कारुण्यभावेन वशीकरोति।
अरिं च मित्रं च परं तु विश्वं विजित्य नित्यं भवति कृतार्थ:।।१०।।
 
कात्यायनगोत्रोत्पन्नेन श्रीमन्नारायणसूनुना।
विन्ध्याचल नामधेयेन देव्यै तु समर्पितम्।।
 
*** मधुपर्क:

Friday, October 09, 2015

अंतिम आशा




निशिकाल में शशि बिंदु सा,
शिव भाल पर बने इंदु सा;
प्रत्यूष-लाली शुभेंदु सा,
तुम चली आना प्रिये

निर्मल गंगा-धार कल्लोलिनी,
सूरत लिए मधु-मोहिनी;
प्रेम-रत रति-यामिनी,
तुम चली आना प्रिये
 
मधु-सिंचित दुत्कार सी,
अलि-कली भ्रमर पुकार सी;
मधु-मास की बहार सी,
तुम चली आना प्रिये
 
काली घटा की दामिनी,
उज्जवल प्रबुद्ध यामिनी;
आरती लिए हे! कामिनी,
तुम चली आना प्रिये
 
माध-मस्त फाग फुहार सी,
श्रावणी घटा गलेहार सी;
प्रेमोन्नमत्त पारावार सी,
तुम चली आना प्रिये

गहन निशा की चेतना,
जीवन जय की प्रेरणा;
अंतिम आत्म प्रवंचना,
तुम चली आना प्रिये
 
जीवन का अंतिम छोर तुम,
मैं बिंदु मात्र चहुँ ओर तुम;
मेरी निशा की भोर तुम,
तुम चली आना प्रिये

मृत्यु जनित श्वास डोर सा,
मातृ-ममता आँचल तोर सा;
हो अंतिम मिलान बिभोर सा,
तुम चली आना प्रिये
 
लिखित अकाट्य भाग्य हो,
तुम मेरे सौभाग्य हो;
इस मूर्ख की तुम काव्य हो,
तुम चली आना प्रिये
 
निशीथ-प्रणीत विनीत सा,
वर्तमान में तुम अतीत सा;
 चिता-अग्नि लिए पुनीत सा,
 तुम चली आना प्रिये
 
मेरी चिता जब जल रही,
बाहें चहुँ दिशा को गह रही;
आत्मा अंतिम कवित्त कह रही,
तुम चली आना प्रिये
 
तेरे नयन तले देह भष्म हो,
भले ये न रिवाज़-रस्म हो;
जीवन का अंतिम तिलिस्म हो,
तुम चली आना प्रिये
 
तेरे हाथ से चिता अग्नि जले,
देह अंतिम पड़ाव को चले;
प्रत्यूष सी वो शाम ढले,
तुम चली आना प्रिये
 
~~~ सचिन रॉय "सहर"~~~