Wednesday, September 30, 2015

एक कविता




मैं दरिया तू समन्दर है कहीं तोहमत न लग जाये,
मुझे चोरी की आदत है, कहीं बिजली चमक जाये।

तेरी ज़ुल्फ़ों की ग़फ़लत में, कहीं बादल बरस जाये,
घटा ये सावनी मत जा, कहीं पागल मचल जाये।

इनायत तेरी नज़रों की, ग़ज़ल मेरी महक जाये,
मेरी इस पीर का मालिक, तरस खाकर सहम जाये।

छुपा ली थी तेरी सूरत नहीं गम था तो क्या कम था,
ये बंदिश भी ग़ज़ल बनकर तेरी पलकों में बस जाये। 

कहर बनकर उतर आओ मेरी साँसों में सो जाओ,
अभी तो उम्र बाक़ी है वहम बनकर समा जाओ,

चलेंगे साथ दोनों ही सुनो शबनम ठहर जाओ,
सही सजदे में दोनों ही अमन की मौशिकी गायें।
 
"मधुपर्क"

Thursday, September 17, 2015

आदित्य द्वादश




सुरभित संध्या पाटल-वन से गुंजित अंचल शंख-ध्वनि से,
वसुधा के वैभव को दिनकर ले चला दाह दामन सत्वर।1
 
अरुणाभ छटा से अवगुंठित दिगन्त प्रान्त की ओर चला,
रजनी मुख में आह्लादित सा अदृश्य लोक की ओर चला।2
 
पत्रान्तराल कर-निकर जाल शोभित मानस मसृण मृणाल,
विभ्रांत चकित विस्मित मराल संकोच विवश कर शिविर चला।3
 
यह गगन बड़ा गर्वीला है गर्जन तर्जन वर्षण देकर,
ले थाल सजाकर किरणों का सूरज को पास बुला लेता।4
 
अरुणाभ अर्क नीलाभ गगन हरिताभ द्रुमावलि पट जाती,
विविधाभ धरा घूँघट ओढ़े रजनी में विरह-व्यथित होती।5
 
विटपों के पार चली जाती श्रृंगों के पार उतर जाती,
चर अचर चिर शान्ति मग में सपनों के पंख लगा जाती।6
 
भूले जग से घर को लौटे चत्वर में व्योम उतर जाता,
सृष्टि के पलने में सुन्दर दादी से विधु लोरी सुनता।7
 
सब दु:ख भुलाकर दिनभर का सब सुख लुटाकर दिनभर का,
रीता-रीता मन भर जाता आँगन में चाँद विहँस जाता।8
 
संध्या-वंदन संध्या साधन सूरज को शांति देता है,
जग में शाश्वत परिवर्तन का संकेत सनातन देता है।9
 
ले विश्व कलश का जल-पावन घट को रीता कर देता है,
विवर्ण विवर इस धरती को कालक्रम से भर देता है।10
 
शाखा-शाखा पर चिह्न छोड़ दे वह्नि शिखा ज्योति प्रतीक
जगदर्थ व्योम में चन्द्र छोड़ तिमिराञ्चल कीलित हो जाता।11
 
उस निशान्त के अन्त्य प्रहर में हरिदश्वरथी लाता प्रभात
निज कर्म धर्म में रत विष्वंग "मधुपर्क"तुझे करता प्रणिपात्।12
 
**** मधुपर्क