Thursday, September 29, 2016

भागता वक़्त


पश्चिम में वक़्त ज़रा तेज़ भागता है
या फिर महीने के बदले हफ़्ते की इकाई 
रफ़्तार की तेज़ी का एहसास देती है। 

कभी कभी बड़ी शिद्दत से याद आता है 
अपना ऊँघता-सा छोटा-सा गाँव 
जैसे तारीख़ के पन्नों में 
 ठहरा हुआ वक़्त का एक टुकड़ा 
चीज़ें कुछ थोड़ी थीं 
पर इत्मीनान बहुत था। 

अब तो न वो नगरी, न वो ठाँव 
न बाँसों की झुरमुट, न बरगद की छाँव
अब तो बस भागता वक़्त है और भागते आप 
सोम से शुक्र, सुबह से शाम 
बस भागमभाग, भागमभाग 
अनवरत, लगभग निरुद्देश्य 
गंतव्य बस एक पड़ाव 
मंज़िल की कौन सोचता है? 

और फिर होती है शाम 
दिन भर का थका हारा वक़्त 
जब थोड़ी साँस लेता है 
तब तारी होता है 
तुम्हारा पुरसुकून ख़याल 
पड़ावों के बीच जैसे 
मंज़िल का गुमान 
मुझमें तुममें कोई तो राह है! 

डाॅ विभास मिश्रा

Saturday, June 11, 2016

क्या करें ?


रात का पिछला पहर है, 
व्यग्र है जो भी लहर है। 
ढीठ बन पुरवाइयों ने, 
फिर जगाया कौन स्वर है ? 
मूँदकर पलकें तो देखें, 
कौन सा सपना मुखर है, 
रात के पिछले पहर का क्या करें ? 

दोष क्या कादम्बिनी का ? 
रेत का मन ही हमारा। 
पत्थरों की इस गली में 
काँच का है घर हमारा। 
जब कभी मधुमास छाया, 
मन हुआ पतझड़ हमारा। 
टूट जातीं व्यग्र लहरें 
चूम पथरीला किनारा। 
टूट कर बिखरी लहर का क्या करें ? 

संशयों के जाल में फँस, 
फड़फड़ाता मन हमारा, 
पर सदा आकाश छूने को 
मचलता मन हमारा, 
जूझता शंका, द्विधा के 
पाश से भी जो न हारा, 
लोल लहरों से प्रताड़ित, 
ढह रहा पल पल किनारा, 
मन बड़ा आकुल, भँवर का क्या करें ? 

नवपलाशों से सुलगती 
पोर तक पहुँची पिपासा। 
जेठ की इस दोपहर में, 
हंस मर जाये न प्यासा, 
गिद्ध बन मँडरा रही है, 
प्राण तक पैठी निराशा। 
बुद्धि की निर्मम नदी में 
है हृदय का घाट प्यासा। 
जेठ की इस दोपहर का क्या करें? 

सरलता, संवेदना की 
निष्कपट गहराइयों से। 
कुमुद, महुए, केतकी से, 
उन सघन अमराइयों से, 
यह नगर अनजान क्यों है 
स्नेह की परछाइयों से ? 
पत्थरों के इस नगर का क्या करें ? 

आँधियाँ चलने लगी हैं, 
हम चढ़े जब भी शिखर पर। 
बिजलियाँ गिरती रही हैं 
क्यों हमारे ही शिविर पर?
प्रश्नचिन्हों ने न छोड़ा, 
आजतक पीछा कहीं पर। 
वर्जनाओं के तने फन, 
हम रुके जिस ठौर पल भर। 
वे कहाँ लौटे कभी जो 
चल पड़े ऐसी डगर पर। 
धुंध में खोती डगर का क्या करें? 

मत लगाओ आज अंकुश, 
इस उफनती सी लहर पर। 
अब सुधा हो या गरल हो, 
आज झरने दो अधर पर। 
छाँह के प्यासे चरण अब, 
दृष्टि पर मेरी शिखर पर। 
राख हो जायें भले ही, 
आग की तपती डगर पर, 
नीड़ छूटे, साँस टूटे, 
ध्यान क्या दूँ भंग स्वर पर ? 
नीड़ से बिछड़ी डगर का क्या करें ?" 

*****शैलेन्द्र कुमार

Friday, May 27, 2016

बरसो वारिद


बरसो वारिद बरसो वन-वन 
हे सरसवान जीवनधर बन 
धरती गतकल्मष हो जाए 
नूतन प्ररोह निकल जाए 
करुणार्द्र दृष्टि से देख जरा
विहँसे जग के सारे उपवन। 

गर्जन से प्यास नहीं जाती 
तर्जन से शान्ति नहीं आती 
नदियाँ,नद, घट भरकर निर्झर 
दृगहर्षित हो जा चमन-चमन। 

हो प्रजावती धरती मेरी छोड़ो 
नभगर्जन की भेरी चातक का 
प्रिय सहचर जा बन खिलने दो 
आँगन, तुलसी बन। 

तेरा चिन्तन हो अतिविराट 
हे नील गगन के मानराट 
गौरव का हर्ष लुटाकर तुम 
बन जा निसर्ग के सखापवन। 

मानद भूषण तू परम व्योम के 
धरती, नभ के, उत्तम कुल के हो 
त्यक्तवर्म वर लोकोत्तर प्रणयी 
मन भाव करो गोपन। 

प्रोषितपतिका की साँसें बन-बन 
वत्सवत्सला अंचल घन 
धरती की दीर्ण दरारों में उतरो 
उशती रजबाला बन। 

किंजल्क निचय पर करो दया 
गढ़ दो लुटकर प्रतिमान नया 
हे मरुद्रथी शक्रावतार सब करें 
तेरा नत अभिनन्दन। 

*** "मधुपर्क" ***

Saturday, May 21, 2016

पारुल (एक कहानी)


मोटर साइकिल तेज़ी से बगल से निकला। पारुल लगभग टकराते टकराते बची। सड़क पर इतनी भीड़ थी कि किसी ने ध्यान भी नहीं दिया कि एक तीन साल की बच्ची अकेले इस तरह चली जा रही है। मैं सड़क के दूसरी तरफ था। मैंने दुकानदार से कहा कि यह तो वही बच्ची है न जिसके पिताजी एक साल पहले गुजर गए थे। उसने मेरी तरफ गौर से देखा 

मुझे उसके पिताजी से कुछ वर्षों पहले हुई बातचीत याद आ गयी। उस दिन उन्होंने पूरे मोहल्ले में मिठाई बँटवाई थी। उन्होंने मुझे कहा था कि उनके घर में लक्ष्मी आई थी। देखना मेरी बेटी बड़ी होकर कितना नाम कमायेगी। वो बोले, अब ज़माना बदल रहा है, मेरी बेटी सौ बेटों के बराबर होगी। फिर मुझे पता चला कि उसके कुछ दिनों के बाद पारुल के पिताजी एक सड़क दुर्घटना के शिकार हो गए। पारुल तब ढाई साल की रही होगी। मैंने देखा था पारुल कैसे अर्थी पर लेटे अपने पिताजी को उठा रही थी। अपनी तोतली आवाज़ में कह रही थी, "पापा उठ, तलो घूमी करने।" पर निष्प्राण शरीर कहीं भला उठ पाता है! उस दिन पारुल गेट से दूर तक पिताजी को श्मशान के तरफ ले जाते हुए लोगों को देखती रही। शाम को सब घर आये पर पारुल के पापा नहीं आये, बार-बार पारुल माँ को कहती – "मामा, पापा कब आयेंगे?" पापा की चप्पल को लेकर पारुल गेट के तरफ जाती और गेट की जाली से देखती कि पापा आयेंगे, तो चप्पल पहना कर सोफे पर उनके साथ बैठूँगी। यह पारुल का पहले रोज का रूटीन था कि पापा के आते ही गेट तक पारुल एक चप्पल लेकर दौड़ कर जाती थी और फिर पापा की गोद में बैठकर सोफे पर पापा के साथ थोड़ी देर खेलती थी। बहुत देर तक जब पापा नहीं आये तो पारुल चप्पल को सीने से लगाये सोफे पर बैठ गयी। और पापा-पापा कहते कहते वहीं सो गयी। मुझे याद है रिश्तेदारों में से कोई पारुल के यहाँ झाँकने तक भी नहीं आया। जब तक पारुल के पापा जिन्दा थे, तो पैसे ऐंठने के लिए रिश्तेदार आते रहते थे। वो थे भी सरल हृदय और उनसे जो बन पड़ता, सबकी सहायता किया करते थे। पर अब, जब वो इस दुनिया में नहीं हैं, तो कौन अपना भाड़ा लगाकर इतनी दूर से मिलने आते। दिन, सप्ताह और महीने बीत गए और शायद पारुल तीन साल की हो गयी थी। 

एक दिन शाम को मैंने देखा कि पारुल रो-रो कर जोर-जोर से बोल रही है- "मामा, मत जाओ, हमको भी साथ ले लो मामा।" पारुल माँ के पैरों में लटक गयी थी, और पैरों से घिसटते हुए वह बहुत दूर घर से सड़क तक आ गयी थी। घसीटने के कारण पारुल का हाथ-पैर छिल गया था। उसकी माँ बिना कुछ बोले ही कार में बैठ गयी। कार में पहले से एक युवक बैठा हुआ था। कार धूल और धुँएं का गुबार पीछे छोड़ता हुआ आगे बढ़ गया। पारुल रोड पर अकेली सूनी सड़क पर टायरों के द्वारा छोड़ी गयी लकीर को देखती और रोती हुई वहीं लेट गयी। बाद में पता चला कि पारुल की माँ दूसरी शादी करके पारुल को छोड़कर चली गयी है। 

घर में सिर्फ दादा, दादी और पारुल रह गये। एक समय पारुल के लिए सुबह-शाम खिलौनों और मिठाइयों की घर में कमी नहीं रहती थी। अब पारुल अपने ही घर में ही बेगानी हो गयी। दादा-दादी अधिक उम्र के कारण कोई भी काम करने में अक्षम थे। बेटे ने जो कमा कर रखा था, उसी से घर का खर्चा किसी तरह चलाने की कोशिश की, पर घर बस चलता ही था। जब जवान बेटा चला जाए और बहु बेटे के ऊपर जाते ही मुँह फेर ले, तो जीवन से और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। उस दिन के बाद आज मैं पारुल को देख रहा था। कभी फैंसी फ्रॉक से ढकी रहने वाली पारुल आज सिर्फ एक छोटी सी फटी हुई पैंट और एक गन्दी सी बनियान में दिख रही थी। और वो भी इस भीड़-भाड़ वाली सड़क पर अकेले। मैंने सोचा कि उस पार जाकर पारुल को गोद में उठाकर कुछ बिस्किट और चोकलेट दे दूँ। दो तीन रिक्शेवाले मेरे सामने आ गए, मैं उनसे बचकर उस पार जाने लगा, पर ज्यादा भीड़ के कारण मुझे आगे बढ़ने में दिक्कत हो रही थी। इसी बीच एक काली कार तेज़ी से उल्टी दिशा से सड़क पर आ रही थी। मैंने रिक्शेवाले को तेज़ी से हटने का इशारा किया, पर मेरे कानों में तेज़ी से कार के ब्रेक लगने की आवाज़ आयी। मैं पारुल के तरफ देखा तो सहम गया। पारुल कार के धक्के से हवा में उछल गयी थी। उसके बाल हवा में पूरी तरह बिखर गये थे और रक्त की बूँदें उसकी नाक और उसके कानों से रिस-रिसकर बाहर आने लगा था। मुझे यह दृश्य देखकर सदमे से बेहोशी सी महसूस होने लगा और धीरे धीरे मैं भी ज़मीन पर गिरने लगा। गिरते-गिरते मैं देख रहा था कि पारुल हवा में दोनों हाथ ऐसे फैला कर गिर रही थी कि मानो उसके पापा अदृश्य रूप से उसके सामने खड़े हों और वो उनसे मिलने के लिए राजहंस की तरह तैरती हुई जा रही हो। मैं ज़मीन पर धम से गिरा और मेरी आँखें धीरे-धीरे बंद होने लगी। बंद आँखों से मैंने देखा कि पारुल ज़मीन पर खून से सनी हुई अधखुली आँखों से मेरी तरफ देख रही थी। दूर आसमान में एक सफ़ेद पंछी डूबते सूर्य की आभा को चीरते हुए आसमान की ऊँचाइयों में विलीन हो रहा था और नीचे ज़मीन पर बाज़ार में मुझे दूर से आती हुई मध्यम संगीत सुनाई दे रही थी –गुड़िया रानी परियों की दुनिया से एक दिन राजकुँवर जी आयेंगे .............!! 

***** उदय कुमार

Sunday, May 15, 2016

स्मृति के कुछ और पन्ने




(कहीं इन्हें भूल न जाएँ)
 
इस लेख या संस्मरण में मैं उन लोगों के बारे में लिखना चाहूँगा, जिनके विषय में मुझे विश्वास है कि लिखाड़ मित्रों की लेखनी कभी भी न चलेगी। इनका उपयोग करते हुए, इनका आदर और निष्ठा पाते हुए और कभी-कभी तिरस्कार करते हुए भी, जिनके संबंध में मैं आश्वस्त हूँ कि सभी छात्र, शिक्षक, कर्मचारी के अंतर्मन में स्नेह और भरोसा रहा है। मैं चर्चा कर रहा हूँ अपने तैंतीस वर्ष के उन साथियों की जिन्हें हम सेवक और कर्मचारी कहते हैं। मेरे ध्यान में सबसे पहले जो दो नाम आते हैं, वे हैं फ्रांसिस आइंद और पतरस बाच के। पतरस शायद विद्यालय के सबसे पहले सेवक और कृषि बगान से संबंधित थे। शांत, अपने काम से काम रखने वाले। कृषि-शिक्षकों (श्री राधा सिन्हा, श्री रघुवंश नारायण और श्री गुफ्रान) और छात्रों से ही उनका विशेष संपर्क रहा। संभावना है कि अनेक शिक्षकों ने उनका नाम न सुना हो, उनसे मिले न हों और उन्हें देखा हो तो भी पहचानते न हों। पर इसमें रंच मात्र भी संदेह नहीं है कि उन्होंने कृषि-बगान के उनके दायित्वों को बखूबी सँभाला, मन से सँभाला, परिश्रम और धैर्य (शिक्षक और छात्रों के साथ कभी-कभी कठिन तालमेल के कारण) से निर्वाह किया। मेरा सेवकों में पहला संपर्क फ्रांसिस आइन्द से हुआ। प्रथम सेट लगभग तैयार हो गया था। फर्नीचर मुख्य बढ़ई मसीह दास की देख-रेख में बन रहा था। प्रथम बैच के शिक्षकों के अंतिम चयन हेतु उन्हें उनकी पत्नी और 14 वर्ष की उम्र से कम के एक बच्चे सहित नेतरहाट बुलाया गया था। वे विद्यालय के प्रथम प्रधानाध्यापक श्री नेपियर के आतिथ्य में 24 घंटे विद्यालय में रहते थे। उनका जलपान, भोजनादि श्री नेपियर के साथ होता था और साथ में विद्यालय की संकल्पना, दिनचर्या, पाठ्यक्रम, कार्यकलापों आदि के संबंध में भी चर्चा-विमर्श आदि होता था। आश्रम-भ्रमण, विद्यालय-परिसर का भ्रमण भी हुआ करता था। दूसरे दिन विद्यालय के शेवरले वैन से वे वापस राँची जाते थे और संध्या तक इसी हेतु दूसरे-दूसरे शिक्षक आ जाते थे। शिक्षकों के आने-जाने की बीच की अवधि में, आयोग की अनुशंसा में प्रथम नामित होने के कारण बिना इस दूसरे साक्षात्कार की औपचारिकता के मुझे योगदान देने का आमंत्रण मिला था। 9 अक्तूबर, 1954 की संध्या को मैं विद्यालय आ गया था और प्रधानाध्यापक के साथ न केवल विद्यालय के कार्यक्रम, पाठचर्चा आदि के विषय में अंतिम रूप दे रहा था बल्कि उनके सौजन्य से अंतर्वीक्षा के लिए आये शिक्षकों के संबंध में विमर्श करता और अपना मंतव्य भी देता था। उसी समय, फ्रांसिस आइंद से मेरा परिचय-संपर्क हुआ। तत्कालीन प्रथा के अनुसार वह सभी को सरकह संबोधित करता था। उन्हीं दिनों मेरे मित्र तथा विकास-विद्यालय के शिक्षक श्री रामकृष्ण टंडन, जो कि बाद में मुरादाबाद के डिग्री कॉलेज के विभागाध्यक्ष भी हुए, मेरे यहाँ आये थे। उन्होंने फ्रांसिस आइंद के सरकहने पर कहा कि इसकी जगह मैं तुम्हें एक दूसरा, अधिक उपयुक्त शब्द बतलाता हूँ। उसी का उपयोग किया करो। हिंदी माध्यम का स्कूल है। वह शब्द है श्रीमानजी। तभी से विद्यालय में श्रीमानजीका प्रचलन हुआ, और आज विद्यालय के छात्रों की पहचान भी बन गया है। 

 यही फ्रांसिस आइंद शीघ्र ही आश्रम-सेवक के स्थान पर पुस्तकालय सेवकबने। अपने अध्ययन (उन्होंने मेरे पुत्र को अंग्रेजी में पत्र भी लिखा था), निष्ठा और कर्मठता, पुस्तकों में रुचि, व्यवहार-कुशलता और शालीनता के कारण न सबका मन मोह लिया बल्कि पुस्तकालय के लिए एक एसेट/परिसंपति भी सिद्ध हुए। इसी बीच में उन्हें कुष्ठ रोग भी हो गया था। बोम्बे के कुष्ठ रोग अस्पताल में उनका इलाज़ भी हुआ था और स्वस्थ भी हो गए थे। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि पुस्तकालय में उनकी पुनर्स्थापना के औचित्य पर मैंने एक गोपनीय पत्र के द्वारा शंका उठाई थी। चिकित्सकों की अनुशंसा और छात्रों के प्रति आश्वस्त होकर वे पुनः पुस्तकालय-सेवकबने और सेवा-निवृत्ति तक अत्यंत योग्यता, विशिष्टता से कर्तव्यों का निर्वाह किया। उनके साथ काम करने का मुझे गौरव है और जिन गिने-चुने लोगों (शिक्षक, कर्मचारी, सेवक आदि) के प्रति मेरे हृदय में स्नेह और आदर भाव है, उनमें फ्रांसिस आइंद एक हैं। यही कारण है कि सेवा-निवृत्त होने के समय स्मृति-स्वरुप उनकी फोटो मैंने खींची थी। पुस्तकालय में फ्रांसिस आइंद के समकक्ष और उसके दूसरे स्तम्भ मिखेल मिंज थे। शांत, मितभाषी, कर्तव्यनिष्ठ, व्यवहार-कुशल और विद्यालय के विशाल पुस्तकालय में पुस्तकों के संबंध में उनकी जानकारी अभूतपूर्व थी। जब भी मुझे किसी की पुस्तक की आवश्यकता होती थी, और यह अकसर ही आया करती थी, तथा खुली दराज़-प्रणालीके कारण वह नहीं मिलती थी तो मिखेल उसे कहीं न कहीं से खोज निकलते थे या उसका अता-पता बता देते थे। पुस्तकालय की निर्भय-व्यवस्थाके ये दोनों कर्णधार थे। पुस्तकालय की चर्चा हो और स्व गौरीशंकर गुप्त का उल्लेख न हो, यह अकल्पनीय है। प्रारंभ में पुस्तकालय-सहायक के रूप में यह काम श्री नवनी गोपाल बनर्जी ने किया। उसके बाद विधिवत नियुक्ति श्री राम निरंजन दुबे की हुई। मैंने उनसे एम.ए. करने के लिए कहा और यह आश्वासन दिया कि उन्हें जिस भी पुस्तक, स्टैण्डर्ड वर्क की ज़रूरत होगी उसे मैं मंगा दूँगा। प्रधानाध्यापक का विश्वास, अधिकार-प्रदत्तता और स्वतंत्रता के कारण ही मैंने ऐसा किया था। मेरी यह धारणा रही है, आज भी है, कि विद्यालय के हर तबके के व्यक्ति को पठन-पाठन की सुविधा होनी चाहिए, अपनी योग्यता-वर्धन के लिए उत्साहित करना चाहिए तथा सुविधा भी दी जानी चाहिए। मुझे यह कहते हुए संतोष हो रहा है कि सभी प्रधानाध्यापक/प्राचार्यों ने इस क्षेत्र में मुझे पूर्ण स्वतंत्रता दी। उसी का फल है कि विद्यालय-पुस्तकालय के कारण कितनों ने अपनी योग्यता-वृद्धि की और उच्चतर पदों पर गए।

हाँ, तो बात श्री राम निरंजन दुबे की हो रही थी। उन्होंने एम ए किया, कॉलेज में लेक्चरर हुए, पी.एच.डी. की, विभागाध्यक्ष भी बने। अभी वे कहाँ हैं मुझे ज्ञात नहीं है। श्री रामनिरंजन जी के बाद श्री गौरीशंकर गुप्त की नियुक्ति हुई। मैं ही प्रत्याशियों का साक्षात्कार ले रहा था। कोषपाल श्री मुनमुन प्रसाद के साले भी एक प्रत्याशी थे। भण्डार में सहायक थे, कर्मठ थे, कागज़-पत्र को कायदे-करीने से रखने वाले थे। प्रधान-श्री दर के पास प्रभावशाली और कार्यालय-व्यवस्था में उनके। श्री दर के पास स्वाभाविक ही श्री मुनमुन प्रसाद की सिफारिश पहुँची। दूसरी ओर श्री गौरीशंकर गुप्त, बी.कॉम, अनुभव-रहित, शांत, शालीन, सुन्दर लिपि के धनी। बलिया के थे, श्री अक्षयवटनाथ मिश्र (सचिव, पी.ए.) के गाँव के परिचित। उन्होंने भी मुझे कहा। श्री दर ने भी चलते हुए मुनमुन प्रसाद का संकेत भी किया था, जिसमें मैंने कहा था: साले का संबंध जोर मार रहा है। श्री दर ने दबा दिया और कुछ नहीं कहा। मुझे बिना राग-द्वेष के श्री गौरीशंकर गुप्त उपयुक्त लगे और उनकी नियुक्ति हो गयी। सचमुच श्री गौरी शंकर गुप्त विद्यालय-पुस्तकालय के लिए वरदान सिद्ध हुए। पुस्तकों से उन्हें प्रेम था ही, उन्हें यह भी याद था कि पुस्तकालय में कौन-कौन सी पुस्तकें हैं, कहाँ हैं। इस क्रम में मैं छोटानागपुर आयुक्त और विद्यालय कार्यकारिणी के अध्यक्ष श्री प्रभाकरन के एक कथन का उल्लेख करना चाहूँगा। श्री प्रभाकरन जब भी विद्यालय आते थे तो सीधे पुस्तकालय जाते थे, आइंद से पुस्तकों की मांग करते थे और श्री गुप्त न केवल यह बताने में समर्थ थे कि पुस्तक है या नहीं, बल्कि खोजकर (तत्काल ही) उन्हें उपलब्ध भी करा देते थे। श्री प्रभाकरन ने मुझे स्वयं उनकी विलक्षण स्मृति, कार्यकुशलता, मृदुता और शालीनता की उन्मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। श्री गुप्त शांत स्वभाव के थे। पद-लोभ उनमें नहीं था। वेतन-पुनरीक्षण के बाद वे कार्यालय में वरीयतम हो सकते थे, कोशिश करते तो प्रभावशाली पद पर अपना दावा ठोक सकते थे। पर वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे। पुस्तक और पुस्तकालय में रच-बस गए थे। उनका प्राप्त साथ मेरा सौभाग्य था। बाद में श्री गुप्त ने काशी विश्वविद्यालय से पुस्तकालय विज्ञान में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की और सेवा-निवृति तक इस पद पर रहे।  

कर्मचारियों में से अनेक का स्मरण करना चाहूँगा पर पृष्ठ-सीमा, समय-सीमा और अन्य कारणों से सभी का उल्लेख अभी संभव नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि उनका योगदान कम रहा है या वे महत्वपूर्ण नहीं थे। अतः अभी मैं केवल तीन सहयोगियों की मैं चर्चा करूँगा। मेरे अन्य मित्र अन्यथा न मानेंगे। सर्वप्रथम मुझे उल्लेख करना है श्री हुरहुरिया जी का। सुबह और शाम, दिन और रात, छोटा या बड़ा जो भी काम उन्होंने बिना किसी हील-हवाला के बिना, पद मर्यादा का ध्यान रख, प्रसन्नचित्त, धैर्य और अपनी सामर्थ्य भर किया, बखूबी किया। श्री दर की तरह छोटे-बड़े सभी काम करने में वे तत्पर रहते थे। संकोच और मद से वे मुक्त थे। वे केयरटेकरथे और उत्कृष्ट केयरटेकर थे। दूसरे हैं श्री रामनाथ सिंह, वरीय, लम्बे रामनाथ सिंह। उनके उतने ही समर्थ साथी थे श्री रामायण शर्मा जी। भोजन-सामग्री, पाकशाला व्यवस्था के कारण इनकी ड्यूटीसचमुच चौबीस घंटों की होती थी। पाकशाला प्रभारी के ये प्रिय थे। सामग्री के साथ पाकशाला हिसाब-किताब (बड़ा कठिन काम) में ये केवल पूरी सहायता ही नहीं करते थे वरण उन कठिनाइयों से उबारने में सदा आगे रहते थे। कहना इन्होंने सीखा ही नहीं था और शालीनता, भद्रता, प्रसन्नता इनकी वृति थी। सचमुच मैं उपर्युक्त त्रिमूर्तिसे न केवल प्रभावित था बल्कि इनकी बहुत इज्ज़त करता था। 

 किसी भी आवासीय विद्यालय के आधार स्तंभ दो होते हैं। एक शिक्षक और दूसरे रसोइये। रसोइये में दो-तीन नाम विशेष रूप से ध्यान में आते हैं। श्री छोटू सिंह बहादुर। सभी प्रकार का खाना-पकवान बनाने में माहिर। मेहनती, तेज़-तर्रार भी। जहाँ भी रहे, वहाँ के खाने में साफ़ बदलाव दिखने लगता था। पाकशाला प्रभारी चाहती थी कि उनके सेट में बहादुर आये, पर कुछ-कुछ सहमी भी रहती थी। बोलने वाला भी बहुत था पर धृष्ट नहीं। बहादुरके साथ जो दूसरा नाम याद आता है वह स्व श्री हरिकांत राय का। श्री बी. के. सिन्हा उन्हें लाये थे। सभी प्रकार का भोजन-पकवान बनाने में माहिर। थकावट का नाम नहीं। और भी थे, हैं, उन सबका उल्लेख तो संभव नहीं। पाकशालाओं में काम करने वालों के संबंध में ध्यान रखने की बात है कि उनकी ड्यूटी सातों दिन की होती थी, पर्व-त्यौहार में तो काम का बोझ बेइंतहा बढ़ जाता था। रसोइये, सेवक जी, जी-जान से जुटकर काम करते थे। कभी-कभी जब की मुहिम छिड़ती थी तो पाकशाला प्रभारी चाहे खीज जाएँ पर इनके चहरे पर शिकन नहीं आती थी। मेरा विश्वास है कि आप सभी मुँह में उनके लज़ीज़ भोजन का स्वाद अभी भी होगा मेरे मुँह में तो है! वे सभी हमारे स्नेह के हकदार हैं।

विद्यालय के कुछ ही लोगों के संबंध में इस संस्मरणात्मक लेख को समाप्त करने से पूर्व मैं एक और व्यक्ति, स्व भीम सिंह की चर्चा करना चाहूँगा। उनके संबंध में प्रवाद फैलाया गया था कि वे निष्कलंक नहीं हैं। उनको निकट से मैंने जाना है। मुझे कोई भी त्रुटि उनके व्यवहार-चरित्र में नहीं मिली। सरल, परिश्रमी, विश्वसनीय मैंने उन्हें जाना है। भोजन-पकवान बनाने में दक्ष थे। हमलोगों के दुर्भाग्य से उनका निधन सेवा-काल में हो गया था। कहने को बहुत कुछ है। कितनों का उल्लेख छूट गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि उनका योगदान नगण्य रहा है। कोई इतिहास लिखा तो नहीं जा रहा है। इसलिए ऐसे सभी मित्रों से मैं करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ।  

*** डॉ मिथिलेश कांति