Saturday, June 15, 2013

''वाजश्रवा '' (छंदमुक्त कविता)



नाराज है वाजश्रवा आज भी अपने पुत्र से,
समय के परिवर्तन में नहीं बदली परिस्थिति,
हाँ पात्र बदल गये,
स्थिति आज भी उतनी ही गंभीर है,
ख्याल में मवाद भर गया है,
जो रिस रहा उन दिनों से,
कारण तब भी मासूम था,
और आज भी,
पर दवा हमने खुद अपनी मुट्ठी में बंद कर ली है,
आयुर्वेद के जनक ब्रह्माकी दाढ़ी में जड़ी-बूटी उलझी हुई है,
जिससे सिर्फ दर्शन निरोग होते आदम के रिश्ते ही नहीं,
हजाम का उस्तरा भी नहीं तरास सकता,
रिश्ते चीख रहे और जुबान के कैंची चल रहे हैं,
वाजश्रवा की नाराजगी चीख नहीं है,
यह तो पुत्र का स्नेह है,
जो मनीषियों को तंग नहीं करता,
नचिकेतस प्रज्ञा विभ्रम में है,
धी, धृति, स्मृति पर विश्वास नहीं,
यमराज का सामना करना तो दूर की बात है,
बात डर की नहीं है फ़िक्र की है,
वाजश्रवा को मनाना कठिन तब भी नहीं था,
और अब भी नहीं है,
पर प्राथमिकता को दीमक चाट गयी,
नचिकेता का ज्ञान, तर्क बौधिक और हार्दिक है,
वाजश्रवा को स्नेह उतना ही सरल था,
जितना कठिन है नचिकेता के तीन प्रश्न,
नादान बच्चा पिता की नाराजगी को समझ बैठा खिलौना
और उसे तोड़ना अपनी जिद,
नाचिकेता के इरादों की चमक यमराज के कंचन-प्रलोभन से कहीं चमकीली है,
धन्य है वाजश्रवा जिसने नचिकेता को जन्म दिया
और साथ-साथ जन्म हुआ पिता पर आस्था।



डॉ. वेंकटेश कात्यायन, 558
कण्व आश्रम, 1996-2000

Saturday, June 08, 2013

भूली बिसरी यादें .. (एक संस्मरण)

हमारे सभी शिक्षक समान रूप से वन्दनीय हैं, लेकिन कुछ यादें अधिक दिनों तक मन-मष्तिष्क पर छाई रहती हैं। अब इसे व्यक्तित्व की विशेषता कहिये या कुछ और। हमारे अंग्रेज़ी के शिक्षक आदरणीय श्री अभिमन्यु खाँ जी के साथ यह बात पूर्ण रूपेण लागू होती है। चाहे चर्चिल हों या गाँधी, प्रखर मेधा वाले व्यक्ति की अपने कुछ आइडियोसिंक्रेसिस होते हैं और श्रीमान जी में भी ये प्रचुर मात्रा में थे। गहरी भेदती हुई आँखें और चाणक्य को याद दिलाती जटा - ये इनके व्यक्तित्व की विशेषताओं की बस कुछ बानगी भर थीं। 

खाँ साहब का व्यक्तित्व मुझे पचास के दशक के प्रसिद्ध लेखक नीरद सी चौधरी की याद दिलाता था जो बंगाली लिखते समय धोती कुरता पहनते थे और अंग्रेज़ी लिखते समय सूट कोट। श्रीमान जी पर भी ये दोनों ही ड्रेस खूब फबते थे, खास तौर से उनकी चुटिया वाले हेयर स्टाइल पर अंग्रेज़ी हैट। वार्षिक दौड़-कूद प्रतियोगिता के समय वे इसी ड्रेस में बहुत सक्रीय रहते, विशेष रूप से कमेंट्री बौक्स में। श्रीमान जी अपनी भविष्यवाणियों के लिए भी जाने जाते थे - खास तौर से उनकी विपरीत होने के बारे में। यह प्रसिद्ध था की अगर वे कहते कि आज पानी नहीं बरसेगा तो उस दिन पानी अवश्य बरसता था। इस बात से बाद में मौसम विभाग ने भी प्रेरणा ग्रहण की है, जो सर्वविदित है।


मुझे इनकी कक्षा में पढ़ने का सौभाग्य कभी नहीं मिला। पर हमारे आश्रम के अन्य दोनों क्लासमेट सरोज कान्त राय तथा संजय कुमार भारती, ये दोनों न सिर्फ इनकी कक्षा में थे बल्कि इनके 'डाई हार्ड' प्रशंसक भी थे और आज तक भी हैं। कक्षा में भी इनकी प्रयोगधर्मिता के कई किस्से हमें सुनने को मिलते रहते थे। जैसे श्रीमान जी के द्वारा 'हिप्नोटिज्म' का प्रदर्शन।
वे सभी बच्चों को बेंच पर सर रखकर आँखें बंद करने को कहते और फिर धीरे धीरे कहते - "बच्चा .. अब तुम सो रहे हो .. सो रहे हो ... अब तुम गहरी निद्रा में हो .. "।


इस क्रम में एक बच्चा हँस पड़ा था तो ऐसा सुना गया कि उसे इस उद्दंडता के लिए दण्डित किया गया। मैं सरोज से बहस करता कि ये तो ठीक नहीं है, ये तो जबरदस्ती है, वगैरह वगैरह, लेकिन उनकी कक्षा के विद्यार्थी उनके सम्मोहन से बंधे रहे। चाहे नींद आये न आये। कुछ तो चुम्बकत्व सी बात अवश्य थी उनमें।


वे क्रिकेट के बड़े ही शौक़ीन थे। एक बार मैंने कह दिया था कि सुनील गावस्कर को अब रिटायर हो जाना चाहिए। श्रीमान जी बहुत नाराज हुए थे - "अच्छा, तो उसकी जगह तुम्हें ले लेनी चाहिए क्या ?”


कई दिनों तक मेरे मित्रों ने इसी वाकये से मेरा मजाक उड़ाया था .. बालसुलभ विनोद ..


इनके बोलने की एक खास शैली थी। पुराने लोगों जैसी .. क्या आपने हरिवंश राय बच्चन के मुख से मधुशाला सुनी है? कुछ वैसा ही टोन।


एक बार कुछ बच्चे इनके घर किसी कार्यवश पहुँचे। इन्होंने माताजी को आवाज दी। "मल्खाइन .. कनी छुरा आनू त"।


बच्चों के होश उड़ गए .. छुरा? एक दूसरे का मुँह देखने लगे। कुछ कहते भी नहीं बन रहा था। लेकिन डर के मारे घिघ्घी बंध गई थी। किन्तु कुछ ही देर में सदा प्रातःस्मरणीय माताजी बच्चों के लिए 'चूरा' (चूड़ा) का भुज्जा लेके आयीं तो बात सबकी समझ में आई। यह घटना नेतरहाट की लोक कथाओं की तरह कई वर्षों तक प्रसिद्ध रही।


श्रीमान जी के मन में हमने बच्चों के लिए प्यार ही प्यार देखा। खेलों के प्रति उनकी विशेष रूचि थी। वे एक अलग डाईमेंशन से शिक्षा प्रदान करते थे। ट्यूटर की तरह बिलकुल भी नहीं, एक गुरु की तरह। बात करने के बड़े शौक़ीन थे। उनकी लेखनी बड़ी धारदार लेखनी थी और वे एक अच्छे वक्ता थे। 


विद्यालय से निकलने के करीब दो दशक बाद एक बार सहरसा जाना हुआ। वहाँ बैंक के निरीक्षण का काम था। जब बैंक मैनेजर ने कहा कि उसे 'बनगाँव' जाना है किसी काम से और वो दो-तीन घंटे तक नहीं रह पायेगा तो मैंने कहा कि उसी गाँव के तो हमारे शिक्षक भी थे - अभिमन्यु खाँ साहेब। मैनेजर ने कहा कि चलिए हमारे साथ, क्या पता मिल ही जाएँ।
असंभव भी संभव हो सकता है। श्रीमान जी घर पर ही थे। बहुत ही प्यार, स्नेह .. नाश्ता वगैरह (छुरा :) .. फिर बात चीत का लम्बा सिलसिला। बैंक मैनेजर को देर हो रही थी।


उसने कहा – “सर, अब देर हो रही है, आदेश करें।” 


श्रीमान जी ने कहा - "बिलकुल, अब मैं अपनी आखिरी बात कह रहा हूँ। इसके तीन पॉइंट हैं। (मैनेजर का दिल बैठ गया, मैंने देखा) । फिर श्रीमान जी ने कहा – “पहले पॉइंट का ... 'क' .. बैंक मैनेजर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया .. मैंने भी चरण छुए .. अविस्मरणीय व्यक्तित्व ..


भारतेंदु कुमार दास, 351
अशोक आश्रम, 1980-1987


Monday, June 03, 2013

ये दुनिया बड़ी अजीब है (एक मुक्तछंद कविता)

ये दुनिया बड़ी अजीब है,
रहते सब यहाँ गरीब हैं,
नसीब-नसीब की बात है,
कम ही अपनों के क़रीब हैं।

                                  
                                         चाहिए बस सुविधा अपनी,
                                         तरक्की की ही बस परवाह है,
                                         जो दुनिया की सुधि न लेता,
                                         वो तो स्वयं ही तबाह है।

 पर चिंता अब पाप है,
 मदद करे तो अभिशाप है,
 न रह सकते वो सुलझे वो,
 इसलिये लगते उलझे वो,

                                         सबके लिए वक़्त निकालो,
                                         अपना ही बंधुत्व जानो,
                                         जीवन है बस पल का खेल,
                                         रख सबसे अपना-सा मेल।


                                                 रवि शंकर, 424
                                                 आनंद आश्रम, 2001-2005

Sunday, June 02, 2013

**भारत बंद** (एक छंद मुक्त कविता)

दुकानों की शटरें गिरायी जा रही हैं,
दर्द को पीने की आदत बनाई जा रही है,
ना कहने की जुर्रत करने वालों के यहाँ सरेआम लूट मचायी जा रही हैं,
इंसान ही तो है इंसान का दुश्मन, यह बात बताई जा रही है,
आज कमाओ तब खाओ,
कभी भूखे पेट ही लेट जाओ,
ऐसे दैनिक शर्तों पर जीने वाले भूखे मजबूर घरों में आज बंद हैं,
जाएँ या ना जाएँ यही उनके मन-मस्तिष्क का आज एक द्वंद्व हैं,
आख़िर वे करें भी तो क्या करें क्योंकि भारत आज बंद हैं
गरीब जनता के वोट से,
नोटों की चोट से,
गरीबी मिटाने के वादे से,
जीत हासिल करने वाले,
एक राष्ट्रीय स्तर के दल का आज भारत बंद है,
भूखे पेट रहने की सज़ा काट रहें मजबूरों से अनुबंध है,
सड़कों पे उतरकर भीड़ का हिस्सा बनना ही सुरक्षित है,
देश की गरीब जनता से बंद में सहयोग अपेक्षित है
 
************************************************ अभिषेक कुमार, 322
                                                 प्रेम आश्रम, 2000-2004

पनघट (छंदमुक्त कविता)




                   पनघट पर घट है,
                   घट में पनघट है,
                   पनघट के घट से,
                   घट-घट के पनघट से,
                   झांक रहा कौन?
                   बोल सखी! क्यों खड़ी मौन?

                   डोर है, जल है, घट है,
                   चौबारे पर पनिहारिनों की जमघट है,
                   मन में छुपा तेरे कौन सा नट है?
                   उच्छवासों के सरगम में छुपा हुआ कौन?
                   बोल सखी! क्यों खड़ी मौन?

                   रूप है, रंग है, ठिठोली और चुहल है,
                   भीगे हुए घट में तेरी आँखों का जल है,
                   तेरे मन के घट को,
                   पनघट पर आने से रोक रहा कौन?
                   बोल सखी! क्यों खड़ी मौन?

                   घट तेरा निर्मल है, उसमें आत्मा का जल है,
                   पनघट के जल में घट-घट का वासी है,
                   घट-घट के वासी को, प्रवासी से मिलने से,
                   रोक रहा कौन?
                   बोल सखी! क्यों खड़ी मौन?
============================= डा. कुंदन कुमार, 12 
                                                                    अरुण आश्रम, 1968-1975 

Saturday, June 01, 2013

एक ग़ज़ल

नसीबों की यूँ जिसने लिखावट नहीं देखी
सर-ए-उम्र यूँ उसने शिकायत नहीं देखी

बुरा माना है उसने ख़ुदा माना है जिसने
घड़ी भर भी है जिसने वो आहट नहीं देखी

वो कहते रहे हैं आदमी, आदमी है क्या
जिगरवालों के दिल में शराफ़त नहीं देखी

मुझे सब पता है उनकी भी रात का आलम
न मालूम हो ऐसी हक़ीक़त नहीं देखी

लुटी आज अस्मत है गिरेबान में झाँको
जिगर चीरने वाली हिफ़ाज़त नहीं देखी

ये मौसम नज़ारा औ ज़मी बोलते हर दिन
दिखा कौन है जिसने सजावट नहीं देखी

न हो प्यार की बातें न इज़हार की बातें
ग़ज़ल की 'सपन' ऐसी बनावट नहीं देखी 

कुमार विश्वजीत, 391, 
अर्जुन आश्रम, 1980-1985 (लेखन का नाम - विश्वजीत 'सपन')