Sunday, August 31, 2014

पीटी लगती फजूल है






पीटी में पीटते,
पीटर से पंचम आश्रम समूह के,
पाकशाला प्रभारी ने पूछा, 
पाक-पाक पहुँचे पर पीट गए,
क्या हुआ जो पंक्ति से पदार्पित हो,
पाँच चक्कर के पंक्पयोदी में फँस गये, 
पीटर चक्कर लगाता रहा,
और कहता रहा,
ये पीटी की सीटी बजाते हैं,
चतुर्थ आश्रम वर्ग वालों का दर्द,
आधा समय हम चक्कर लगाते हैं.
ये तृतीय वालों की बहार है,
सीटी सुन के उठते हैं,
हम सोये नहीं कि,
स्वप्न में भी पीटी पीटी करते हैं.
चार किलोमीटर का फासला,
क्या कम होता है,
पीटी करने वाले समझते हैं,
कब कैसा मौसम होता है.
ठण्ड लगी ज़रा सी खड़े क्या होते हैं,
आ धमकते हैं, 
पता नहीं नज़र कैसे रखते हैं.
पढ़ाई तो लगती कूल है,
फिर लगा चक्कर,
पीटी लगती फजूल है.

रमेश रॉय

Saturday, August 23, 2014

प्लास्टिक के फूल





प्लास्टिक के फूलों की ज़िन्दगी कितनी सूनी है,
देखने में असली पर हक़ीक़त में नक़ली है।
कितना ही चाहें कि फ़िज़ा में ख़ुश्बू बिखेर दे,
भौरों को अपने कलेजे में समेट ले।
माली से कह दे कि उसका माला बना दे,
या किसी देवता के चरणों पे चढ़ा दे।
होता नहीं ये कुछ भी कभी उसकी ज़िंदगी में,
बस मुस्कुराना भर है उसे अपनी ज़िन्दगी में।
कौन कहता है कि वो कभी मुर्झा नहीं सकते,
देखा है कभी झाँक कर उनकी आँखों में तुमने।
बढ़ाते हैं घरों के ड्राइंगरुम की शोभा वो तुम्हारी,
पाते हैं बड़ाई के चन्द अल्फ़ाज़ वो हमारी।
कुछ कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते,
प्लास्टिक के फूल जो ठहरे, नक़ली ये कहलाते।

शील रंजन

Tuesday, August 19, 2014

तेरी परछाईं




आज अचानक,
हौले से घर का पर्दा सरसराया
दूर अँधेरी रात में –
जलता दीपक भी बुझ गया था;
बगल में सोये मासूम बच्चों की –
निष्कलुष मुस्कान भी खो गयी,
यादों के विशाल समंदर में –
आँसुओं की फुहार पड़ गयी।
फिर, रिमझिम बरसात में –
अचानक बिजली कौंध गयी,
लगा कि ज़िन्दगी का –
अगला पल रोशन हो जायेगा,
फिर मैंने घर का कोना-कोना छान मारा –
अंतिम अहसास की मानिंद,
सब कुछ बदल गया –
तेरे अहसास का वज़ूद खो गया है;
बिन घरनी घर भूत का डेरा हो गया है।

राजेश रमण,
लिपिक पुस्तकालय, नेतरहाट विद्यालय
'सर्जना' २०११ से साभार