Saturday, December 19, 2015

विप्रलंभ





तेरी अंगड़ाई से घायल उस पर तेरा ये इतराना
संतोष तुझे कितना होगा गर हो जाऊँ मैं दीवाना।
 
पलकों की नींद पहाड़ों पर जम गई बर्फ की परतों पर
शायद सदियों के बाद बहे तेरा हँसना, मेरा रोना।
 
तन है धरती, मन है अम्बर हम दोनों में कितना अंतर
लम्हा जीता सदियाँ हारी आवारा पत्थर मत छूना।

क्षण की क्षणिका बनकर आई कण की कणिका बन चली गई
पावस आँखों में ठहर गया आगे जग को तू मत छलना।  

क्रौंच करुण हो चला गया अभिशप्त व्याध हो क्यों गया
उस दिन जाने तुम क्यों रोई इसके आगे फिर क्या लिखना।
 
*****विन्ध्याचल पाण्डेय "मधुपर्क"
 



Wednesday, November 11, 2015

शुभ दिवाली


अम्बर से सूरज रोज नया संदेश सुनाता 
धरती को पहरे पर विधु को बैठाकर मैं चला, 
जला तुम दीपक को। 
रजनी का आँगन खाली हो नहीं ये अभीष्ट होगा 
मुझको इसलिए सजाया तारों को पर 
तुम भी जला लो दीये को। 
मैं जब आता दिन हो जाता अभिसार अधूरा है 
अबतक सदियों से हूँ मैं निराकांक्ष पर 
फिर आऊँगा मिलने को। 
जंगम है तू मैं स्थावर तुम चिर ऊर्वरा मैं 
यायावर मैं देख रहा पर शून्य रहा 
तुम धन्य धरा पा दीपक को। 
विनिमय की भी शर्तें होतीं मैं निभा गया 
तू निभा रही तू भी जड़ हो मैं भी जड़ हूँ 
पा धन्य हुई जड़ दीपक को। 
जड़ से चेतन को राग मिले चेतन से जड़ को 
अभिनन्दन मानव तम के उस पार चले दिनकर 
दीपक को करे नमन। 
मिट्टी से बनकर सुघड़ दीया रीता रखता 
हर पल तन को बाला, वनिता, बच्चे, बूढ़े भर 
स्नेह जलाते दीपक को । 
सबके चत्वर में चौरा हो हर चौरे में वृन्दा-क्षुप हो 
उस पर जलता एक दीपक हो पल-पल,
नव-नव जलता रूप हो। 
दीपक देता संदेश नया तिल-तिल जलना 
पल-पल देना पुरुषार्थ तुम्हारा वरण-योग्य मुझको 
आँधी से क्या लेना। 

विन्ध्याचल पाण्डेय "मधुपर्क"

Monday, November 09, 2015

धनत्रयोदशी सदा भवेत् सुमंगल


                                                             स्वरचित सुमंगली 


धनत्रयोदशी सदा भवेत् सुमंगली। 
यशस्करी आयुष्करी भवेत् विवर्धनी।।१।। 

समुद्रगर्भनि:सृतं आरोग्यदायकं। 
धन्वंतरिं समर्च्य तु प्रमोदमानसै:।।२।।

श्रियमुमासुतं गृहे आनीय पूजयेत्। 
प्रलब्धद्रव्यपूजनै: विधिं समाचरेत्।।३।। 

उपचारपञ्चकै:भवेत् तु वास्तु षोडशै:।
पञ्चगव्यप्राशनं कुरुष्व मार्जनं तत:।।४।। 

प्रज्वाल्य दीपकं चतु्र्मुखं सुवर्त्तिनम्। 
नैवेद्य -नैष्ठिकं निवेद्य प्राञ्जलिर्भवेत् ।।५।। 

कर्पूरद्रव्यभावनै: सघण्टनि:स्वनै:। 
आरार्तिकं विधेहि सह बन्धुबान्धवै:।।६।। 

तत:परं सुपुष्पसाक्षतैर्भवेत् नत:। 
समर्पयेत् सदा भवेत् सुमंगलं वदेत् ।।७।। 

धन्वन्तरये नमोनम: धन्वन्तरये नमोनम:। 
धन्वन्तरये नमोनम: धन्वन्तरये नमोनम:।।८। 

धन्वन्तरये नमोनम: वदेत् प्रेम्णा मुदा तदा। 
प्रसन्नो वरदो सुखदो भवतु हे धन्वन्तरि देव ।।९।। 

विन्ध्याचल पाण्डेय "मधुपर्क"

Saturday, November 07, 2015

कोई करता है सवाल, मुझसे


कोई करता है सवाल, मुझसे - 
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आज़ादी के बुनियादी हक़ के तुम तरफदार , 
पैरोकार तुम इन्साफ के, 
अक्सर बोलते - लिखते हो आदमी के हक़ में - 
तुम्हारे होठ - कागज़ - कलम, 
सिद्धांतों की वकालत करते 
अक्सर लांघते हदें - बन्धु , 
यह सब कब घुलेगा तुम्हारे रक्त में 
तुम्हारी कथनी कब बनेगी तुम्हारा स्वभाव ? 
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तुम एकनिष्ठ व्रतचारी , मीमांसक , तत्वचेता 
तुम्हारे सामने उफान पर धार्मिक उन्माद बन्धु , 
तुम्हारा सर्व शक्तिमान तुम्हारी विनती पर रीझ 
क्यों नहीं करता ध्वंस्त 
जन विरोधी प्रपंची - विभेदकारी तंत्र - 
तुम्हारी सक्रिय सहभागिता पाकर - 
अपने आराध्य की नीयत में तुम देखते हो , कोई खोट ?
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तुम मनुष्य , धर्म तुम्हारा मनुष्यता , 
फिर क्यों मामूली उकसावे पर , उभर आते हैं , 
तुम्हारी हरकतों में 
लोमड़ी - कुत्ते - सियार - बन्धु, 
जब - तब , घर - बाहर, 
हर - कहीं तुमसे क्यों अक्सर छूट जाती है इंसानियत ? 
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काटने-मारने -दबोचने -चबाने -चूसने - में 
तुम पाते हो आनंद 
समता-ममता, करुणा-न्याय, समन्वय-समंजन 
स्वभाव नहीं बना तुम्हारा 
अपकर्मों के प्रति आकर्षण, आनंद तुम्हारे कुत्सित 
बन्धु , सोचो ना , कितना मुश्किल है मेरे लिए 
तुम्हारा नाम दर्ज करना इंसानों की सूची में ? 
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सिनेमा हॉल से निकल, तुम भूलते हो नायक के डायलाग 
मुखस्थ रहते हैं खलनायक के कथन, उसकी अदाएँ 
तुम्हारे वजूद में विद्यमान पशुता, 
आवरण में छिपी कुटिलता सहित तुम्हें 
बन्धु , मैं मान नहीं पाता मनुष्य ?
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***** मित्रेश्वर अग्निमित्र