Sunday, April 20, 2014

अभिव्यक्ति




एक अपरिपक्व अभिव्यक्ति
अचानक से मन में बड़ी व्याकुलता सी हुई
कुंठा सी महसूस हुई
सोचा, सोचा कुछ व्यक्त करूँ 
मन के विचारों को
और इस जीवन में मिलते सहारों को
पर क्या कहूँ
किसके बारे में कहूँ
छवि कुछ धूमिल सी हुई परी है
शब्दों का अभाव भी हैं
कहते हैं डूबते को तिनके का सहारा काफी होता है
पर उनका क्या जो तिनके के भरोसे चलते हैं
महसूस हुआ
कहीं अपनी ज़िन्दगी ऐसी तो नहीं
सोचा
द्वन्द छिड़ा
युद्ध घमासान
अरमानों की नृशंस हत्या-
हत्यारा मैं खुद 

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प्रणय भारद्वाज

Sunday, April 13, 2014

हरि अनंत हरि कथा अनन्ता - भाग : 7



रिपोर्ट कार्ड  

नेतरहाट में प्रवेश के बाद जब छुट्टियों में घर पहुँचा तो थोड़े दिनों बाद मेरा रिपोर्ट कार्ड आया। सबसे पहले प्राचार्य का टाइप किया हुआ कमेंट था - हँसमुख चेहरा। यह बात दीगर है कि मेरे आश्रम के गिरिराज बहादुर (३१) का कथन था; क्योंकि तुम्हारे आगे के दो दाँत निकले हुए हैं इसलिए प्राचार्य ने ऐसा लिखा है। वैसे मैं यह पूछते-पूछते रह गया था तब खरगोश जैसा चेहरा क्यों नहीं लिखा? अगला पृष्ठ सबसे पहले इतिहास के सिंह साहब; उत्तम प्रगति, लिपि सुधारें। अगला कान्तिजी; उत्तम प्रगति, सुन्दर लिपि। मेरे पिताजी चकरा गए। यह कैसी रिपोर्ट? अब मैं कैसे उन्हें समझाता की इतिहास की कोई पुस्तक तो थी नहीं। सिंह साहब एक्सप्रेस रफ़्तार से नोट देते थे। उसे ही पढ़कर हम परीक्षा देते। उद्देश्य यह होता था की सारी बातें लिख ली जाएँ। जो नहीं लिख पाते थे मेरी कॉपी से नक़ल कर लेते थे जैसे ज्योति (६१) और गिरिराज (३१)। ऐसे में लिपि कहाँ से ठीक होती? कान्ति जी धीरे-धीरे लिखाते और हम सुन्दर अक्षरों में लिखते।
 
एक बार संस्कृत के शिक्षक परम मित्र शास्त्री जी ने मुझसे कहा कि तुम इस पर्व में सभी लड़कों पर निगाह रखो। संस्कृत में नक़ल मारना काफी लड़कों का परंपरागत कार्य था। मैंने उन लड़कों की प्रगति के आगे तस्करी वृत्ति भी लिख दिया था। एक दिन अचानक मेरा लिखा रजिस्टर मेरे किसी बैचमेट ने शास्त्रीजी की अनुपस्थिति में देख लिया और वे लड़के मुझ पर तस्करी वृत्ति लिखने के कारण काफी गुस्सा हो गए। मैंने शास्त्रीजी से रिपोर्ट कार्ड न लिखने के लिए क्षमा माँग ली। प्रयास, सफलता और निष्ठा के लिए जब अस्थाना जी किसी को क -घ -क देते तो लड़का अगर उनके पास जाकर आपत्ति प्रकट करता था तो निष्ठा वाला '' दिखाकर कहते तुम्हारा '' यहाँ है। एक बार अस्थाना जी ने बॉटनी के लिए चित्र बनाकर लाने को कहा। पूरी कक्षा में मुझे ही '' मिला बाक़ी उन सभी को जो पेंसिल के शेड विधि से चित्र बनाकर लाए थे उन्हें '' मिले क्योंकि चित्रों को लेबल सिर्फ मैंने ही किया था।
 
हमारे समय नेतरहाट के शिक्षकों में कुछ ऐसा था की वे आपकी बुद्धिमत्ता की सटीक जाँच कर लिया करते थे। एक बार मैंने फिजिक्स न्यूमेरिकल की परीक्षा में सभी उत्तर गलत लिखे थे फिर भी बी डी पाण्डेय जी ने मुझे '' दिया। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हारी गलती सिर्फ अंकगणित वाली है। हल करने की सारी विधियाँ ठीक हैं, इसलिए '' कृषि के रघुवंशजी जब खुदाई की जाँच करने आते तो एक खास जगह हम मिट्टी भुरभुरी करके रखते थे ताकि कुदाल पूरा धँस जाये। रघुवंशजी प्रारम्भ में तो वहीं पर कुदाल से प्रहार करवाते परन्तु बाद में वे समझ गए थे और '' से सरककर हम '' पर आ गए। कांति जी जब हमारे आश्रमाध्यक्ष बने तो उन्होंने सब लड़कों का रिपोर्ट कार्ड बनवाया। उसमें वे नियम पूर्वक भरा करते थे। उनका पुत्र अनुराग कान्ति हमलोगों से एक साल जूनियर था। उसकी सहायता से हम उसे पढ़ लेते। एक बार अरुण कुमार सिंह (२३८) के कार्ड पर उन्होंने लिखा : पंचम वर्ष के छात्र कुंदन से काफी हिला। ऐसा इसलिए था कि मैं राँची पार्टी से जाता था और अरुण के पिताजी से मुलाकात राँची में हो जाया करती थी। मैं वरिष्ठतम् छात्र था अतः उसके पिताजी हर बार उसका ध्यान रखने को कह जाते। बाद के वर्षों में वे अपने साथ मुझे एक दिन के लिए पतरातू लेकर जाते। हमलोग काफी दिनों तक आश्रम में हिला-हिला की गुहार लगाते रहे। शायद कान्ति जी को शक हो गया था। रिपोर्ट कार्ड की सुरक्षा कड़ी हो गयी। पर हम तो हर सुरक्षा को भेद सकते थे।
 
हमारी कक्षा के छात्रों के विरोध करने की अनोखी अदा थी। जिस शिक्षक का विरोध करना होता उसके दरवाज़े पर आलू, केले का घौद आदि डाल दिया जाता। कान्तिजी ने एकबार भोजनालय में कहा कि अगर किसी ने आलू फेंका तो हम उसका आलू चॉप बनाकर खा जायेंगे। इस बात का ज़िक्र मैंने एक बार क्लास में कर दिया। अगले ही दिन उनके घर के दरवाज़े पर एक किलो आलू सवेरे-सवेरे पड़ा मिला। उन्होंने रिपोर्ट कार्ड में लिखा कुंदन ने मेरे दरवाज़े पर आलू फेंका। मैंने इसकी सफाई अनुराग को दे दी थी। हमारे बैच के कारनामों में मेरी लिप्तता के बारे में रिपोर्ट कार्ड में लिखते रहते। यह बात आज मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि इस तरह के किसी कार्यक्रम में मेरा या मेरे आश्रम के किसी छात्र का कोई हाथ नहीं था। हाँ बातें पता रहती थी। अपने जूनियर बैच के साथ एक आश्रम में हुए झगड़े के बावजूद अरुण आश्रम का आपसी सौहार्द बहुत अच्छा था। यह मेरे साथ रहने वाले सारे अरुण के अन्तेवासी जानते हैं। लेकिन उफ़ वो कार्ड -


कुंदन कुमार

Saturday, April 05, 2014

बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय (संस्मरण)



सन 1982, माह जुलाई, तिथि 7, रात्रि के लगभग 9 बजे, स्थान : आश्रमाध्यक्ष, बोस आश्रम का भोजन कक्ष मैं, रणजीत चौधरी और प्रशांत कृष्ण अपने आश्रमाध्यक्ष श्री कमलेश्वर प्रसाद जी के साथ नेतरहाट प्रवास का अंतिम भोजन करते हुए । सब-कुछ शानदार, बेहद अपनापन के साथ – मकुनी, टमाटर की चटनी, आलू की सब्जी और पता नहीं क्या-क्या । एकाएक बारिश तेज़ हो गई और बिजली गुल । अब तक हम हास-परिहास में लगे थे । हमारे साथ श्री मेहता आश्रमाध्यक्ष, रमण आश्रम और माता जी थे, जिनके मुर्गों की टोली का एक मुर्गा 6 जुलाई 1982 की रात्रि हमारा शिकार हो चुका था । प्रशांत और मैं बदनाम हो चुके थे मुर्गों के शिकार के लिए । पर आख़िरी रात बगैर शिकार के – ऐसा कहीं होता है ? बेशर्मों को शर्म कहाँ । बिजली गुल थी और मैं बोस आश्रम के दरो-दीवार को एक बार देख लेना चाहता था; ज़िन्दगी के साढ़े छः अनमोल साल उन्हीं दीवारों को तो अपना घर कथा था  और आज मुझे वो दीवारें याद आती हैं । श्रीमान जी से कहा तो वे बिगड़ पड़े – "दोनों कमरों में तो ताला जड़ा है, क्या देखोगे ?"
वैसे तो वे डांट रहे थे लेकिन उनका दिल पसीज गया था और आवाज़ में कम्पन थी । तभी एक तेज़ सिसकी सुनाई दी – माता जी अंधेरा का लाभ उठा रही थीं ।
"जाने भी दीजिये न, वैसे भी विजय हैं; कुछ भी कर लेंगे ।" मोमबत्ती जला कर माता जी ने ख़ुद को सँभालते हुए श्रीमान जी से कहा।
श्रीमान जी बोले – "ठहरो, टार्च देता हूँ ।
अब तक मैंने भी ठान ली थी कि अपने अभिभावकों को भावुक होने का और अवसर नहीं दूँगा और मैंने कहा – "श्रीमान जी, इतने भी बुरे दिन नहीं आये कि बोस आश्रम में चलने के लिए टोर्च की ज़रुरत पड़े ।"
यह कह कर मैं निकल गया । पहले कमरा संख्या एक में गया । खिड़की की सिटकनी सेट थी । एक ही झटके में खुल गई । कौंधती आसमानी बिजली की रोशनी में ख़ुर्द-ख़ुर्द को (छोटे से छोटे हिस्से को) जी भर कर निहारा । हर बीते दिन याद किये । शायद रोया भी । उसी तरह से कमरा संख्या दो में गया । पहले तीन साल मैंने एक ही खिड़की के किनारे काटे थे । उन दिनों शायद पारिजात का बीएड था । मुझे अपनी ज़िन्दगी के तीन मासूम साल याद आये, जिसने मुझे विजय नाथ झा बना दिया था । फिर भोजनकक्ष – तरक़ीब वही पुरानी । मुझे बरबस याद आया वह बच्चा जो अक्सर स्वाध्याय में सो जाता था और दण्डित होता था । शायद यही कारण था कि मैंने कभी किसी बालक को स्वाध्याय में सोने के लिए कुछ नहीं कहा था । सब-कुछ देखा, यहाँ तक कि शौचालय और सतालू का पेड़ भी, जिसे जबरन हमने आँगन के पक्कीकरण में भी काटने नहीं दिया था । हरेक चीज़ अपनी लग रही थी । मानो कह रही हो – करोगे याद तो हर बात याद आएगी । अंत में झाडू कक्ष – जो अंतिम वर्षों के लिए मेरा निवास था । ताला लगा था, प्रवेश का एक और रास्ता था – खिड़की की हटाई जा सकने व्वाले शीशे की पट्टियाँ मगर वह तरीक़ा मंज़ूर नहीं था । छोटा सा ताला था, पकड़ कर ज़ोर से उमेठ दिया और ताला खुल गया । मैं अपने बीएड पर था – मेरे सब्र का बाँध टूट चुका था । मुझे  एक-एक घटना याद आ रही थी । किस तरह श्रीमान जी ने अन्य शिक्षकों से मेरे लिए लड़ाई की थी, किस तरह से उन्होंने मुझे समझाया था, किस तरह से माता जी हमेशा मुझे बचा लेती थीं, किस तरह से उन दोनों ने हमें सहेजकर रखा था मानो मुर्गी अपने चूजों को अपने पखों में समेटकर रखती हो । मेरे आँसू निकल आये । मैं पत्थरदिल समझा जाता था और उसी ईमेज के साथ विदा होना चाहता था । सिसकियाँ न निकलें इसका पूरा प्रयास किया मैंने किया । उस दिन मैंने जान कि क्यों बेटियाँ बाप का घर छोड़ते वक़्त रोटी हैं । मेरे आँसू निकल रहे थे । आवाज़ बिलकुल नहीं थी पर मुझे महसूस हुआ कि बादलों की गड़गड़ाहट में कोई सिसकी भी है । बाहर निकला तो एक खम्भे से सर टिकाये प्रशांत और दूसरे में सर घुसाए रणजीत नैहर छूटने के सोगवार थे । मैंने धीमे से दोनों का कन्धा थपथपाया । बारिश की बूंदों से अपना चेहरा धोया और वापस भोजन पर । श्रीमान जी एवं माता जी को देखकर लगा कि हम कहीं फिर से न रो दें । हमारा भीगा सर देखकर श्रीमान जी ने डांट लगा दी – "जाते-जाते श्रीमान जी को बदनाम करना है क्या, भीगे क्यों?"
खैर, हमने भोजन किया । कैसे किया यह नहीं पता ।
माता जी ने वातावरण को हल्का करने का प्रयास किया – "विजय आपका फेवरेट मुर्गा तो बना नहीं पाए, बहुत कोशिश की नहीं मिला ।"
मेहता साहब ने कहा – "भाभी जी इन लोगों के लिए एक मुर्गा मैंने रखा था, लेकिन जाने कहाँ चला गया, सुबह से मिल ही नहीं रहा है ।"
एक ठहाका गूँजा । बिजली आ गई थी । मैंने श्रीमान जी एवं माता जी के चरण-स्पर्श किये और कहा – "कल सुबह छः बजे विद्यालय ट्रक से निकल रहा हूँ, लेकिन मिअलने नहीं आऊँगा ।" आवाज़ भर्रा गई थी । पत्थरदिल की असलियत सामने आ रही थी । चुपचाप निकल गया । बोस के प्रवेशद्वार की पीली बत्ती पर एक नज़र डाली और तेज़ी से निकल गया । प्रशांत पीछे से आवाज़ देता रहा, लेकिन मैंने नहीं सुना । अशोक आश्रम के मोड़ पर मैं इंतज़ार करने लगा, लेकिन पलट कर नहीं देखा ।
बिजली आ जाने के बाद माता जी ने रेडियो लगा दिया था – सहगल की दर्द भरी आवाज़ में गाना गूँज रहा था – बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय.....
                                                                      विजय नाथ झा, 683
                                                                   बोस आश्रम, 1975-82