Wednesday, September 30, 2015

एक कविता




मैं दरिया तू समन्दर है कहीं तोहमत न लग जाये,
मुझे चोरी की आदत है, कहीं बिजली चमक जाये।

तेरी ज़ुल्फ़ों की ग़फ़लत में, कहीं बादल बरस जाये,
घटा ये सावनी मत जा, कहीं पागल मचल जाये।

इनायत तेरी नज़रों की, ग़ज़ल मेरी महक जाये,
मेरी इस पीर का मालिक, तरस खाकर सहम जाये।

छुपा ली थी तेरी सूरत नहीं गम था तो क्या कम था,
ये बंदिश भी ग़ज़ल बनकर तेरी पलकों में बस जाये। 

कहर बनकर उतर आओ मेरी साँसों में सो जाओ,
अभी तो उम्र बाक़ी है वहम बनकर समा जाओ,

चलेंगे साथ दोनों ही सुनो शबनम ठहर जाओ,
सही सजदे में दोनों ही अमन की मौशिकी गायें।
 
"मधुपर्क"

No comments:

Post a Comment