Saturday, September 05, 2015

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता (भाग-10)



गिरिराज बहादुर सिंह  

मेरा घर उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में बिहार बार्डर से 5. कि. मी. दूर है। मेरे पिता जी रेलवे में काम करते थे और बिहार में गढ़हरा में 10 साल से पोस्टेड थे। अत: नेतरहाट मैं देर से गया। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि मेरे साथ मेरे बैच के गिरिराज बहादुर सिंह (31), मसउद रब (42) और ज्योति भ्रमर तुबिद (61) थे। गिरिराज और मैं हिन्दी के ‘क’ वर्ग, विज्ञान के ‘क’ वर्ग और अंग्रेजी के ‘ख’ वर्ग में साथ-साथ थे। गिरिराज गोरा चिट्टा सर को देवानन्द की तरह एक तरफ झुकाकर चलने वाला था। अपनी सुमधुर आवाज़ के कारण अन्त्याक्षरी में गेय कविताओं के लिये हमारी कक्षा की टीम का स्थायी सदस्य था। विश्व स्तर पर होने वाले खेलकूद और उसके रेकार्डों की जानकारी से हम लोगों को चमत्कृत किया करते थे। हमारे आश्रम से होने वाले नाटकों में शरदेन्दु के अलावा नारी पात्रों के लिये वही फिट बैठता था। मुझे अफसोस इस बात का रहा कि मैं जिस नाटक में केन्द्रीय भूमिका में उसके साथ था, वह इतनी बार रिहर्सल के बावजूद नहीं खेला जा सका। उसके पिता स्वर्गीय श्री ब्रजराज बहादुर सिंह जी अपने पत्रों में उसे बीते दिनों के मुख्य समाचारों की जानकारी दिया करते थे। गणित के कठिन सवाल भी अपने पिता से पत्रों में पूछा करता था। उसके इस बात की नकल मेरे अलावा कई लोगों ने की। खेलकूद में उसे केवल क्रिकेट पसंद था। मुझसे या ज्योति और मसउद से कभी उतना खुल नहीं पाया। अपने घर खगड़िया के मित्रों से ज्यादा खुला था। उसका एक सरदार मित्र दो बार नेतरहाट आया। इंटर में उसके साथ एक बार घूम-फिर कर रात को ग्यारह बजे आया, तब हमारे आश्रमाध्यक्ष कान्ति जी ने सबके सामने उसे डाँटना शुरू किया तब मैंने उसका विरोध सबके सामने किया। प्रथम वर्ष में जब देवजी ने पाकेटमनी के हिसाब का रजिस्टर अवधेशजी से लेकर मुझे दिया तब वह मुझसे चिढ़ गया। उसके बाद मुझे चिढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। ज्योति और मसऊद को भी उसने अपने पाले में लेने की कोशिश की। मसऊद ने कुछ दिनों उसका साथ दिया फिर वह अकेला पड़ गया। इस प्रसंग के बाद वह दूसरे आश्रम के हमारे बैच के मित्रों से ज्यादा करीब होने लगा।

एक बार देवजी ने हमारी क्रियेटिविटी जानने के लिये परीक्षा में प्रश्न में कहा कि आप कुछ भी कीजिये। हमारा आश्रम लोअर घाघरी की पदयात्रा से लौटा था मैंने वही लिखा। गिरिराज ने निबंध लिखा 'खाली समय कैसे बिताया जाये’ और 10 में 5 अंक लेकर कक्षा में सबसे आगे रहा। देवजी ने कहा अगर कोई तोते की चोंच बनाता तब वह अव्वल होता। पंचम सेट बनने पर मसऊद बोस आश्रम चला गया। मैं और ज्योति ज्यादा घुले मिले थे, अत: गिरिराज हमारे एक सीनियर गुरूचरण जी के ज्यादा करीब हो गया। मुझे लगता है कि आरंभिक दो वर्षों के बाद नेतरहाट में उसकी सफलता का ह्रास होता गया। आश्रम में अपने बैच के आसपास के बैच वालों से भी उतना घुला-मिला नहीं था। यह आदत उसकी बरक़रार रही। मुम्बई में रहते हुये केवल चन्द्रशेखर (60) उसके करीब था। इंटर में ज्योति लौटकर नहीं आया, तब मैं और गिरिराज बच गये। मेरी तरह वह भी मेरे बैच के आन्दोलनकारी गतिविधियों में वह शामिल नहीं था। लेकिन उसमें आत्मविश्वास की कमी होती जा रही थी। इसलिये मैंने आश्रम प्रभारी का पद उसे दे दिया। मेरी बहन की मृत्यु हो जाने पर मेरे साथ नेतरहाट से गढ़हरा तक गया और मेरी माताजी को सान्तवानायें दीं।

मैं भी छुट्टियों में उसके घर दुर्गा स्थान सन्हौली खगड़िया गया, जहाँ उसने दिल खोलकर मेरा स्वागत किया और अपनी पसंदीदा फिल्म 'पूजा और पायल' दिखायी। इंटर में उसका रिजल्ट आशानुरूप नहीं रहा। वह काफी हतोत्साहित हो चुका था। मेरे पास वह पटना के पंडुयी लाज में आया। मैंने और चन्द्रशेखर ने उसका उत्साहवर्धन किया। कहा कि अपने आगे किसी को नहीं समझो। दो दिन बाद इसी बात को दुहराते गया और मुझे बनारस में मर्चेंट नेवी में चयन की सूचना दी। उसके बाद लापता हो गया। कुछ वर्ष पहले चन्द्रशेखर ने उसके घुटनों की बीमारी के बारे में बताया। मेरे बुलाने के बावजूद मेरे पास नहीं आया और अपने रिश्तेदार से पटना में असफल इलाज कराता रहा। उसकी मृत्यु ने मुझे अन्दर तक झकझोर कर रख दिया है। अगले जन्म में फिर उसके साथ की कामना रखता हू्ँ यानि 'मानुष हों तो वही रसखान बसैं नेतरहाट की कुँज गलियों में -------

कुंदन कुमार

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