Monday, September 09, 2013

चलो चलें हम गाँव की ओर......(एक छंदमुक्त कविता)



कूकत कोयल नाचत मोर,
चाँद बुझा के आ गई भोर।
टिन की छत पे बारिश बूँदें,
दय दय ताल करत हैं शोर।

 जंगल जंगल खबर है फैली,
नर नारी हुये आदमखोर।
आदम की नीयत का नाहीं,
मिलता कहीं ओर या छोर।
 
हर इक को नीचा दिखलाने,
यहाँ लगी है सब में होड़।
प्रगति का लेखा मत देखो,
ये देश चला रसातल ओर।
 
हर नेता भाषण में कहता,
तारे लाऊँ आसमाँ तोड़।
हर अमीर जीता है पी कर,
यहाँ गरीब का खून निचोड़।
 
संसद का मत हाल तू पूछ,
लड़ते हैं सब कुर्सी तोड़।
कौन बड़ा संतों में असंत,
संतों में लगी गई है होड़।
 
टिकट उसे देगी हर पार्टी,
जो चोरों का हो सिरमौर।
देश तरक्की पर है साहब,
रुपया भले हुआ कमजोर।
शहर मिज़ाज बदल चुका है,
चलो चलें हम गाँव की ओर।
              
                                    विजय रंजन "नीहार"

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