Sunday, September 01, 2013

एक मुक्त छंद कविता



'' गौरव''
मुझे गर्व है अपने देश पर,
बात ही कुछ और है मेरे देश की,
गौरव है इसका इतिहास,
गुलाम बनने का,
कभी मंगोल से,
कभी अँग्रेज से और कभी,

अपनों ने ही हमें गुलाम बनाया है,
बहुत दुःख होता है,
बाहर से आया एक आवारा हमारा इतिहास बदल देता है,
और! 
अफ़सोस है कि हमारा वर्तमान भी उनका प्रमाण मात्र रह गया है,
विश्वास नहीं होता कि राम के इस देश में,
उनका ख़ुद का सम्मान भी अपहृत कर लिया जाता है,
और उनका अफ़सोस जलता है,
सीता की अग्नि -परीक्षा में,
राम के आदर्श कठिन प्रश्न बन जाते हैं,
महाभारत ने तो मानव-इतिहास का ढाँचा ही बदल डाला,
जो छल-प्रपंच, अस्मिता हरण का महा अध्याय मात्र रह गया है,
क्या एकलव्य की पीड़ा कभी द्रोणाचार्य को समझ में आयी?
गुरु तो अंधकार मिटाता है,
पर जो खुद अंधेरे में है,
शबरी का जूठा खाने से,
इतिहास पर गर्व नहीं होता,
क्यों?
निवाले को हलक से छीनने वाले का ज़िक्र तक नहीं होता,
आज का वर्तमान, अतीत के रक्त की सोच के आपात से निर्मित है,
किसी ने यह नहीं बताया की असलियत क्या है?
ख़ुद को सभी ने ख़ुद्दार बताया,
अवसर को मक्कार बताया,
पूर्वज अपने मूल्य की खुदाई उसी समय कर चुके हैं,
मोहनजोदड़ों-हड़प्पा तो उनके जीवन की शैली मात्र है,
और
हम उस खुदाई के अवशेष,
भारत-पाक विभाजन का सुकून,
तब खून से धुला हुआ,
और आज भी हमारे रिश्ते रक्त से सूखे हुए हैं,
संक्रमण आज का नहीं है,
बड़ा गौरव था हमारे इतिहास पुरुष को,
अपने स्वार्थ,
अपने कृत्य पर,
जिससे हम आज भी मुक्त नहीं है
गौरव है -
मुझे इस देश पर, मिट्टी पर,
पेड़-पौधों, नदी-नहर पर,
तालाब, झरनों पर, 
जिन्होंने कभी अपने लिए साँस नहीं लिये,
गौरव नहीं उन पर,
जिन्होंने अपने मूल्य, ऐश्वर्य,
सम्मान के लिए साँस ली
----------------------------------------------------- वेंकटेश कात्यायन.

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