Tuesday, August 19, 2014

तेरी परछाईं




आज अचानक,
हौले से घर का पर्दा सरसराया
दूर अँधेरी रात में –
जलता दीपक भी बुझ गया था;
बगल में सोये मासूम बच्चों की –
निष्कलुष मुस्कान भी खो गयी,
यादों के विशाल समंदर में –
आँसुओं की फुहार पड़ गयी।
फिर, रिमझिम बरसात में –
अचानक बिजली कौंध गयी,
लगा कि ज़िन्दगी का –
अगला पल रोशन हो जायेगा,
फिर मैंने घर का कोना-कोना छान मारा –
अंतिम अहसास की मानिंद,
सब कुछ बदल गया –
तेरे अहसास का वज़ूद खो गया है;
बिन घरनी घर भूत का डेरा हो गया है।

राजेश रमण,
लिपिक पुस्तकालय, नेतरहाट विद्यालय
'सर्जना' २०११ से साभार

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