Thursday, February 06, 2014

"मित्रता" (सैतीस साल बाद हमारे बैच का पुनर्मिलन)



 
दोस्ती के घने जंगल

दोस्ती के घने जंगल,  
नीले गगन की छाँव में,                 
अलसाये पड़े अनमने जंगल'
दरिया में पानी बह रहा था,
ठहर-ठहर कुछ कह रहा था,  
शांत दरिया गुनगुना रहा था,
उसको जंगल सुन रहा था,
रागे-दरिया सुनने की हमको ही फुर्सत कहाँ थी,
पर जंगल को पता था,
एक दिन फिर आएगा,
समय की दीवार को तोड़ती धारा से,
भागेगा आलस्य का अमंगल,
दोस्ती के घने जंगल,
नीले गगन की छांव में,
अलसाये पड़े अनमने जंगल,
पेड़ों के पत्ते झड़ गए,
फिर उन पर पत्ते लद गए,
ऊँचाइया बढ़ती रही,
गहराइयाँ छलती रही,
न जाने कब तक ऊँघता कारवाँ चलता रहा,
एक दिन फिर से फुनगियाँ चहकने लगीं,  
अलसाई धूप फिर से इतराने लगी,
भरभराकर फिर से कोंपलें लहराने लगीं,  
तडित प्रवाह से प्राण जागा,
हो गए मदमस्त जंगल,
दोस्ती के घने जंगल,
नीले गगन की छाँव में,
अलसाये पड़े अनमने जंगल,
बंद पलकों के भी अन्दर जो भी सपने छुप गए थे,
दोस्ती के जंगलों में वे सारे सचमुच खड़े थे,
पेड़ों की फुनगियों पर उल्लास का समुंदर घुला था,
सीप के मोती सरीखा एक कोष बिखरा पड़ा था,
बाँध पलों को आँचलों में हो गए फिर अनमने जंगल,
दोस्ती के घने जंगल,
नीले गगन की छाँव में,
अलसाये पड़े अनमने जंगल




कुंदन कुमार 
अरुण आश्रम 1968-75
 


No comments:

Post a Comment