इस धुंध तिमिर में,
तम के शिविर में,
ज़रुरत है – एक दिव्य
प्रकाश की,
प्रकाश जो हमें –
दानव से मानव बना
सके,
प्रकाश जो हमें –
सत्य का मार्ग दिखा
सके,
प्रकाश जो हमें –
मानवता की राह बता सके,
लेकिन –
कहाँ है! वह दिव्य
प्रकाश?
कितनी सदियाँ
हमें भटकना होगा –
इस अंधकार में,
बुद्ध और गाँधी के
इंतज़ार में,
क्या हम रुक सकेंगे
तब तक?
क्या इस घनघोर तम
में
उत्थान और पतन का
भेद कर पायेंगे हम!
'अत्तदीपा विहरथ'
हमें अपना प्रकाश
स्वयं बनना होगा,
हमें जुगनू –
बनना होगा,
जुगनू रास्ता दिखा
तो नहीं सकता,
लेकिन स्वयं अपने
रास्ते
चल तो सकता है.
स्वर्गीय अजय कुमार
सिंह, आई. पी. एस.
अरुण आश्रम
नोबा संवाद, जुलाई २००४ अंक से
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