रिपोर्ट कार्ड
नेतरहाट में
प्रवेश के बाद जब छुट्टियों में घर पहुँचा तो
थोड़े दिनों
बाद मेरा रिपोर्ट कार्ड आया। सबसे पहले प्राचार्य का टाइप किया हुआ कमेंट था - हँसमुख चेहरा। यह बात दीगर है कि मेरे आश्रम के गिरिराज बहादुर (३१) का कथन था; क्योंकि तुम्हारे आगे
के दो दाँत निकले हुए हैं इसलिए प्राचार्य ने ऐसा लिखा है। वैसे मैं यह पूछते-पूछते रह गया था तब खरगोश जैसा चेहरा
क्यों नहीं लिखा? अगला
पृष्ठ सबसे पहले इतिहास के सिंह साहब; उत्तम प्रगति, लिपि सुधारें। अगला कान्तिजी; उत्तम प्रगति, सुन्दर लिपि। मेरे पिताजी चकरा गए। यह कैसी रिपोर्ट? अब मैं कैसे उन्हें समझाता की इतिहास की कोई पुस्तक तो थी
नहीं। सिंह
साहब एक्सप्रेस रफ़्तार से नोट देते थे। उसे ही पढ़कर हम परीक्षा देते।
उद्देश्य यह होता था की सारी बातें लिख
ली जाएँ। जो नहीं लिख पाते थे
मेरी कॉपी से नक़ल कर लेते थे जैसे ज्योति (६१) और गिरिराज (३१)। ऐसे में लिपि कहाँ से ठीक होती? कान्ति जी धीरे-धीरे लिखाते और हम सुन्दर अक्षरों में लिखते।
एक बार संस्कृत
के शिक्षक परम मित्र शास्त्री जी ने मुझसे कहा कि तुम इस पर्व में सभी लड़कों पर निगाह रखो। संस्कृत में नक़ल मारना काफी
लड़कों का परंपरागत कार्य था। मैंने उन लड़कों की प्रगति के आगे तस्करी वृत्ति भी लिख दिया था। एक दिन अचानक मेरा लिखा रजिस्टर मेरे किसी बैचमेट ने
शास्त्रीजी की अनुपस्थिति में देख लिया और वे लड़के मुझ पर तस्करी वृत्ति लिखने के कारण काफी गुस्सा हो गए। मैंने शास्त्रीजी से रिपोर्ट कार्ड न लिखने
के लिए क्षमा माँग ली। प्रयास, सफलता और निष्ठा के लिए जब अस्थाना जी किसी को क -घ -क देते तो लड़का अगर उनके पास
जाकर आपत्ति प्रकट करता था तो निष्ठा वाला 'क' दिखाकर कहते तुम्हारा 'क' यहाँ है। एक बार अस्थाना जी ने बॉटनी के लिए चित्र बनाकर लाने को कहा।
पूरी कक्षा में मुझे ही 'क' मिला बाक़ी उन सभी को जो पेंसिल के शेड विधि से चित्र बनाकर लाए थे उन्हें 'ख' मिले क्योंकि चित्रों को लेबल सिर्फ मैंने ही किया था।
हमारे समय नेतरहाट के शिक्षकों में कुछ ऐसा था
की वे आपकी बुद्धिमत्ता की सटीक जाँच कर लिया करते थे। एक
बार मैंने फिजिक्स न्यूमेरिकल की
परीक्षा में सभी उत्तर गलत लिखे थे फिर भी बी डी पाण्डेय जी ने मुझे 'ख' दिया। उन्होंने मुझसे
कहा कि तुम्हारी गलती सिर्फ अंकगणित वाली है। हल करने की सारी विधियाँ ठीक हैं, इसलिए
'ख'। कृषि के रघुवंशजी जब खुदाई की जाँच करने आते तो एक खास जगह हम मिट्टी भुरभुरी करके रखते थे ताकि कुदाल पूरा धँस जाये। रघुवंशजी प्रारम्भ में तो वहीं पर कुदाल से प्रहार करवाते परन्तु बाद में वे समझ गए थे और 'क' से सरककर हम 'ख' पर आ गए। कांति जी जब हमारे आश्रमाध्यक्ष बने तो
उन्होंने सब लड़कों का रिपोर्ट कार्ड बनवाया। उसमें वे नियम पूर्वक भरा करते थे। उनका पुत्र अनुराग कान्ति
हमलोगों से एक साल जूनियर था। उसकी सहायता से हम उसे पढ़ लेते। एक बार अरुण कुमार सिंह (२३८) के कार्ड
पर उन्होंने लिखा : पंचम
वर्ष के
छात्र कुंदन से काफी हिला। ऐसा इसलिए था कि मैं राँची पार्टी से जाता
था और
अरुण के पिताजी से मुलाकात राँची में
हो जाया करती थी। मैं वरिष्ठतम् छात्र था अतः उसके पिताजी हर बार उसका ध्यान रखने को कह जाते। बाद के वर्षों में वे
अपने साथ मुझे एक दिन के लिए पतरातू लेकर जाते। हमलोग काफी दिनों तक आश्रम
में हिला-हिला की गुहार लगाते रहे।
शायद कान्ति जी को शक हो गया था। रिपोर्ट कार्ड की सुरक्षा कड़ी हो गयी। पर हम तो हर सुरक्षा
को भेद
सकते थे।
हमारी कक्षा के छात्रों के विरोध करने की अनोखी अदा थी। जिस शिक्षक का विरोध
करना होता उसके दरवाज़े पर आलू, केले का घौद आदि डाल दिया जाता। कान्तिजी ने एकबार भोजनालय में कहा कि अगर किसी ने आलू फेंका तो हम उसका आलू चॉप
बनाकर खा जायेंगे। इस बात का ज़िक्र मैंने
एक बार क्लास में कर दिया। अगले ही दिन उनके घर के दरवाज़े पर एक किलो आलू सवेरे-सवेरे
पड़ा मिला।
उन्होंने रिपोर्ट कार्ड में लिखा कुंदन ने मेरे दरवाज़े पर आलू फेंका। मैंने इसकी सफाई अनुराग को दे दी थी। हमारे बैच
के कारनामों में मेरी लिप्तता के बारे में रिपोर्ट कार्ड में लिखते रहते। यह बात आज मुझे
कहने में
कोई संकोच नहीं कि इस तरह के किसी कार्यक्रम में मेरा या
मेरे आश्रम के किसी छात्र का कोई हाथ नहीं था। हाँ बातें पता रहती थी। अपने जूनियर बैच के साथ एक आश्रम में हुए झगड़े के बावजूद अरुण आश्रम का आपसी सौहार्द बहुत अच्छा था। यह मेरे साथ रहने वाले सारे अरुण के
अन्तेवासी जानते हैं। लेकिन उफ़ वो कार्ड -
कुंदन कुमार
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