सन 1982, माह जुलाई, तिथि 7, रात्रि के लगभग 9 बजे, स्थान : आश्रमाध्यक्ष, बोस
आश्रम का भोजन कक्ष । मैं, रणजीत चौधरी और प्रशांत कृष्ण अपने आश्रमाध्यक्ष श्री
कमलेश्वर प्रसाद जी के साथ नेतरहाट प्रवास का अंतिम भोजन करते हुए । सब-कुछ शानदार, बेहद अपनापन के साथ – मकुनी, टमाटर की
चटनी, आलू की सब्जी और पता नहीं क्या-क्या । एकाएक बारिश
तेज़ हो गई और बिजली गुल । अब तक हम हास-परिहास में लगे थे । हमारे साथ श्री मेहता आश्रमाध्यक्ष, रमण
आश्रम और माता जी थे, जिनके मुर्गों की टोली का एक मुर्गा 6 जुलाई 1982 की रात्रि
हमारा शिकार हो चुका था । प्रशांत और मैं बदनाम हो चुके थे मुर्गों के शिकार के
लिए । पर आख़िरी रात बगैर शिकार के – ऐसा कहीं होता है ? बेशर्मों को शर्म कहाँ ।
बिजली गुल थी और मैं बोस आश्रम के दरो-दीवार को एक बार देख लेना चाहता था; ज़िन्दगी
के साढ़े छः अनमोल साल उन्हीं दीवारों को तो अपना घर कथा था और आज मुझे वो दीवारें याद आती हैं । श्रीमान
जी से कहा तो वे बिगड़ पड़े – "दोनों कमरों में तो ताला जड़ा है, क्या देखोगे ?"
वैसे तो वे डांट रहे थे लेकिन उनका दिल पसीज गया था और आवाज़ में कम्पन थी ।
तभी एक तेज़ सिसकी सुनाई दी – माता जी अंधेरा का लाभ उठा रही थीं ।
"जाने भी दीजिये न, वैसे भी विजय हैं; कुछ भी कर लेंगे ।" मोमबत्ती
जला कर माता जी ने ख़ुद को सँभालते हुए श्रीमान जी से कहा।
श्रीमान जी बोले – "ठहरो, टार्च देता हूँ ।
अब तक मैंने भी ठान ली थी कि अपने अभिभावकों को भावुक होने का और अवसर नहीं
दूँगा और मैंने कहा – "श्रीमान जी, इतने भी बुरे दिन नहीं आये कि बोस आश्रम
में चलने के लिए टोर्च की ज़रुरत पड़े ।"
यह कह कर मैं निकल गया । पहले कमरा संख्या एक में गया । खिड़की की सिटकनी सेट
थी । एक ही झटके में खुल गई । कौंधती आसमानी बिजली की रोशनी में ख़ुर्द-ख़ुर्द को
(छोटे से छोटे हिस्से को) जी भर कर निहारा । हर बीते दिन याद किये । शायद रोया भी ।
उसी तरह से कमरा संख्या दो में गया । पहले तीन साल मैंने एक ही खिड़की के किनारे
काटे थे । उन दिनों शायद पारिजात का बीएड था । मुझे अपनी ज़िन्दगी के तीन मासूम साल
याद आये, जिसने मुझे विजय नाथ झा बना दिया था । फिर भोजनकक्ष – तरक़ीब वही पुरानी ।
मुझे बरबस याद आया वह बच्चा जो अक्सर स्वाध्याय में सो जाता था और दण्डित होता था ।
शायद यही कारण था कि मैंने कभी किसी बालक को स्वाध्याय में सोने के लिए कुछ नहीं
कहा था । सब-कुछ देखा, यहाँ तक कि शौचालय और सतालू का पेड़ भी, जिसे जबरन हमने आँगन
के पक्कीकरण में भी काटने नहीं दिया था । हरेक चीज़ अपनी लग रही थी । मानो कह रही
हो – करोगे याद तो हर बात याद आएगी । अंत में झाडू कक्ष – जो अंतिम वर्षों के लिए
मेरा निवास था । ताला लगा था, प्रवेश का एक और रास्ता था – खिड़की की हटाई जा सकने
व्वाले शीशे की पट्टियाँ मगर वह तरीक़ा मंज़ूर नहीं था । छोटा सा ताला था, पकड़ कर
ज़ोर से उमेठ दिया और ताला खुल गया । मैं अपने बीएड पर था – मेरे सब्र का बाँध टूट
चुका था । मुझे एक-एक घटना याद आ रही थी ।
किस तरह श्रीमान जी ने अन्य शिक्षकों से मेरे लिए लड़ाई की थी, किस तरह से उन्होंने
मुझे समझाया था, किस तरह से माता जी हमेशा मुझे बचा लेती थीं, किस तरह से उन दोनों
ने हमें सहेजकर रखा था मानो मुर्गी अपने चूजों को अपने पखों में समेटकर रखती हो ।
मेरे आँसू निकल आये । मैं पत्थरदिल समझा जाता था और उसी ईमेज के साथ विदा होना
चाहता था । सिसकियाँ न निकलें इसका पूरा प्रयास किया मैंने किया । उस दिन मैंने
जान कि क्यों बेटियाँ बाप का घर छोड़ते वक़्त रोटी हैं । मेरे आँसू निकल रहे थे ।
आवाज़ बिलकुल नहीं थी पर मुझे महसूस हुआ कि बादलों की गड़गड़ाहट में कोई सिसकी भी है ।
बाहर निकला तो एक खम्भे से सर टिकाये प्रशांत और दूसरे में सर घुसाए रणजीत नैहर
छूटने के सोगवार थे । मैंने धीमे से दोनों का कन्धा थपथपाया । बारिश की बूंदों से
अपना चेहरा धोया और वापस भोजन पर । श्रीमान जी एवं माता जी को देखकर लगा कि हम
कहीं फिर से न रो दें । हमारा भीगा सर देखकर श्रीमान जी ने डांट लगा दी – "जाते-जाते
श्रीमान जी को बदनाम करना है क्या, भीगे क्यों?"
खैर, हमने भोजन किया । कैसे किया यह नहीं पता ।
माता जी ने वातावरण को हल्का करने का प्रयास किया – "विजय आपका फेवरेट
मुर्गा तो बना नहीं पाए, बहुत कोशिश की नहीं मिला ।"
मेहता साहब ने कहा – "भाभी जी इन लोगों के लिए एक मुर्गा मैंने रखा था,
लेकिन जाने कहाँ चला गया, सुबह से मिल ही नहीं रहा है ।"
एक ठहाका गूँजा । बिजली आ गई थी । मैंने श्रीमान जी एवं माता जी के चरण-स्पर्श
किये और कहा – "कल सुबह छः बजे विद्यालय ट्रक से निकल रहा हूँ, लेकिन मिअलने
नहीं आऊँगा ।" आवाज़ भर्रा गई थी । पत्थरदिल की असलियत सामने आ रही थी ।
चुपचाप निकल गया । बोस के प्रवेशद्वार की पीली बत्ती पर एक नज़र डाली और तेज़ी से
निकल गया । प्रशांत पीछे से आवाज़ देता रहा, लेकिन मैंने नहीं सुना । अशोक आश्रम के
मोड़ पर मैं इंतज़ार करने लगा, लेकिन पलट कर नहीं देखा ।
बिजली आ जाने के बाद माता जी ने रेडियो लगा दिया था – सहगल की दर्द भरी आवाज़
में गाना गूँज रहा था – बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय.....
विजय नाथ झा, 683
बोस आश्रम, 1975-82