इस कथा का पहला भाग "स्वावलम्बन" आप पढ़ चुके हैं, अब प्रस्तुत है दूसरा
भाग--"घ"
'घ' एक अक्षर नहीं एक पूरा ग्रन्थ है -इस पर प्रकाश कोई हाटियन ही डाल सकता
है और यह प्रकाश भी इतना रंग बिरंगा होगा कि आँखें चुंधिया जाएँगी और
मस्तिष्क पर इसके प्रभाव से मुहँ से लार टपकने की भी सम्भावना है।
उन
दिनों अरुण आश्रम के आश्रमाध्यक्ष स्वर्गीय श्री सहदेव प्रसाद सिंह देव जी
थे। माताजी किचन की प्रबंधक थी। विनोदजी जो आश्रम प्रभारी थे भोजनालय में
किनारे वाली जगह पर बैठते थे और जैसे ही खाने में कोई नुक्स निकलता था
सीधे उठकर किचन में जाते थे। उनकी यह अदा मुझे बहुत पसंद थी। मैं जब
आश्रम प्रभारी बना तो मैंने उनकी इस अदा को कई बार दोहराया। इस से भोजनालय
में मेरा रोब - दाब स्थापित हो गया था जिसका मैंने कई बार फायदा उठाया।
जैसे अपने लिए नाश्ते में कच्चा अंडा ले लेना और जब दो तीन इकठ्ठे हो जाएँ
तो वहाँ जाकर मोटा आमलेट बनवाना , या उबले अंडे को फ्राई करा के खाना।
एक
बार खिचड़ी खाने में थी- कुछ धुंएं कि गंध आ रही थी , मैं सीधे किचन में
गया। मुझे लेकर आश्रम सेवक माताजी के पास पहुंचा। उस समय श्रीमती डे के
हाथों में किचन का प्रबंध आ गया था और मैं उनके पास बहस कर रहा था।
श्रीमानजी शांति आश्रम के आश्रमध्यक्ष थे और अरुण तथा शांति आश्रम के
आश्रमध्यक्षों के निकलने के पीछे वाले रास्ते पर हम खड़े थे जहाँ से सामने
की सड़क दिखती थी। अचानक श्रीमती डे रोने लगीं और मुझसे कहने लगीं मैं
इतनी मेहनत करती हूँ और तुम लोग केवल नुक्स निकालना जानते हो। मैं इस
दृश्य परिवर्तन पर दिग्भ्रमित हो गया - लेकिन मेरी साँसे अटक गयी जब मैंने
प्राचार्य श्री बी के सिन्हा जी को अंदर आते देखा। मुझे दृश्य परिवर्तन
का कारण समझ आ गया था। उन्होंने माताजी को चुप कराया-मुझे डांटा और फिर
खिचड़ी सूंघी और कहा -थोडा स्मोकी है पर खाने लायक है। मैं मुहँ लटकाये
वापस आ गया।मुझे विनोदजी कि अदा दुहराना काफी महंगा पड़ चुका था।
लीजिये बात कहाँ कि हो रही थी कहाँ चले आये।
रविवार का दिन और विशेष भोजन -
किसी हाटियन से इसके बारे में पूछकर देखिये - कैसे आ जाती है उसकी आँखों
में चमक। उस विशेष भोजन के दिन “घ” का खाका हमारे अग्रजों ने तैयार कर रखा
था। खाना शुरू हुआ -छोटे बच्चे लोग उठ गए थे -चार पांच लोग बैठे थे। आटा
दूसरी बार गूँधा जा रहा था -अब केवल पूरी और पानी मिली सब्जी ही थी - पर
“घ” जारी था- श्रीमानजी एक बार चक्कर लगा गए थे - जाड़े के दिन थे इसलिए
भोजन सबका आँगन में हो रहा था - हमारे आश्रम में रविवार को कई बार ऐसा ही
किया जाता रहा था। करीब चार बजे के बाद भोजन खत्म हुआ। या खत्म कर दिया
गया।
असली कहानी अब शुरू होती है। हमलोगों को कुछ पता नहीं था। हमलोग केवल
“घ” कि महत्ता पर चर्चा में व्यस्त थे। रात्रि के स्वाध्याय में कुछ लोग
बार बार लघु शंका करने जाने लगे। मेरे बगल में सुदर्शनजी बैठे थे। मुझे
लगा जब वे बहार से अंदर आते हैं तो उनकी आँखों में चमक बढ़ जाती है जैसे कोई
बिल्ली मलाई चाट कर लौटी हो। मैं भी बाहर गया। मुझे कुछ पता नहीं चला।
सुदर्शन जी फिर बाहर आये मुझसे पूछा क्या ढूंढ रहे हो - शौचालय तो उधर है
-मैंने कोई बहाना बना दिया- हम चेंजिंग रूम के सामने खड़े थे। मेरे मन में
शक़ का कीड़ा कुलबुला रहा था -मैं फिर बाहर आया। सुदर्शनजी फिर आ गए -
बोले पूरी खानी है -बिना मेरा उत्तर सुने वे मुझे चेंजिंग रूम में ले गए और
एक आलमारी खोल कर पूरी और इमली कि चटनी खाने को दिए। मैं अवाक् रह गया।
करीब आठ बजने वाले थे,स्वाध्याय के दौरान ही श्रीमानजी ने विनोद जी को
बुलाया। फिर जब वे लौटे तो तो सुदर्शनजी का बुलावा आ गया था। मुझे भी
बुलाया गया। मैं आश्रमाध्यक्ष के कमरे के बाहर खड़ा था-अंदर से देवजी की
आवाज आ रही थी-सुदर्शनजी अंदर थे -पूरी खाते हो और एक जोरदार चांटे की
आवाज़ - मैं अपना गाल सहलाने लगा था। मेरा बुलावा आया - मैंने पार्टी बदल ली
और श्रीमान जी को बता दिया पूरी कहाँ रख़ी है। श्रीमान जी ने उसे बरामद
करवाया। काफी दिनों तक हमें जबर्दस्ती “घ” से परहेज करना पड़ा।