अम्बर से सूरज रोज नया संदेश सुनाता धरती को पहरे पर विधु को बैठाकर मैं चला, जला तुम दीपक को। रजनी का आँगन खाली हो नहीं ये अभीष्ट होगा मुझको इसलिए सजाया तारों को पर तुम भी जला लो दीये को। मैं जब आता दिन हो जाता अभिसार अधूरा है अबतक सदियों से हूँ मैं निराकांक्ष पर फिर आऊँगा मिलने को। जंगम है तू मैं स्थावर तुम चिर ऊर्वरा मैं यायावर मैं देख रहा पर शून्य रहा तुम धन्य धरा पा दीपक को। विनिमय की भी शर्तें होतीं मैं निभा गया तू निभा रही तू भी जड़ हो मैं भी जड़ हूँ पा धन्य हुई जड़ दीपक को। जड़ से चेतन को राग मिले चेतन से जड़ को अभिनन्दन मानव तम के उस पार चले दिनकर दीपक को करे नमन। मिट्टी से बनकर सुघड़ दीया रीता रखता हर पल तन को बाला, वनिता, बच्चे, बूढ़े भर स्नेह जलाते दीपक को । सबके चत्वर में चौरा हो हर चौरे में वृन्दा-क्षुप हो उस पर जलता एक दीपक हो पल-पल, नव-नव जलता रूप हो। दीपक देता संदेश नया तिल-तिल जलना पल-पल देना पुरुषार्थ तुम्हारा वरण-योग्य मुझको आँधी से क्या लेना।
कोई करता है सवाल, मुझसे - --------------------------- आज़ादी के बुनियादी हक़ के तुम तरफदार , पैरोकार तुम इन्साफ के, अक्सर बोलते - लिखते हो आदमी के हक़ में - तुम्हारे होठ - कागज़ - कलम, सिद्धांतों की वकालत करते अक्सर लांघते हदें -
बन्धु , यह सब कब घुलेगा तुम्हारे रक्त में तुम्हारी कथनी कब बनेगी तुम्हारा स्वभाव ? ------------------------------------- तुम एकनिष्ठ व्रतचारी , मीमांसक , तत्वचेता तुम्हारे सामने उफान पर धार्मिक उन्माद
बन्धु , तुम्हारा सर्व शक्तिमान तुम्हारी विनती पर रीझ क्यों नहीं करता ध्वंस्त जन विरोधी प्रपंची - विभेदकारी तंत्र - तुम्हारी सक्रिय सहभागिता पाकर - अपने आराध्य की नीयत में तुम देखते हो , कोई खोट ? ------------------------------------------ तुम मनुष्य , धर्म तुम्हारा मनुष्यता , फिर क्यों मामूली उकसावे पर , उभर आते हैं , तुम्हारी हरकतों में लोमड़ी - कुत्ते - सियार -
बन्धु, जब - तब , घर - बाहर, हर - कहीं तुमसे
क्यों अक्सर छूट जाती है इंसानियत ? ---------------------------------------- काटने-मारने -दबोचने -चबाने -चूसने - में तुम पाते हो आनंद समता-ममता, करुणा-न्याय, समन्वय-समंजन स्वभाव नहीं बना तुम्हारा अपकर्मों के प्रति आकर्षण, आनंद तुम्हारे कुत्सित बन्धु , सोचो ना , कितना मुश्किल है मेरे लिए तुम्हारा नाम दर्ज करना इंसानों की सूची में ? -------------------------------------------- सिनेमा हॉल से निकल, तुम भूलते हो नायक के डायलाग मुखस्थ रहते हैं खलनायक के कथन, उसकी अदाएँ तुम्हारे वजूद में विद्यमान पशुता, आवरण में छिपी कुटिलता सहित तुम्हें बन्धु , मैं मान नहीं पाता मनुष्य ? ---------------------------------- ***** मित्रेश्वर अग्निमित्र
मैं तुम्हारा हित चाहने वाला! मिला करता हूँ तुमसे हर रोज़ इस वक्त इन अखबारों में. कह नहीं सकता तुमसे कुछ वर्ना किसी
कवि की ये पंक्तियाँ निरर्थक हो जाती... कि "प्यार किया तो कहकर उसे बताना क्या" और वैसे हमारे जन्मभूमि" बिहार" में तुम
तो साक्षात विचरण कर रही हो. फ़ील गुड हो रहा है ना ऋषियों-मनीषियों, राजा-महाराजाओं की पाकीजा धरती पर. पर मैं बताता हूँ.. हूँ तो अभी बच्चा ही, इसलिए तुनक जाता
हूँ सुनकर कि 'बिहार ' की राजनीति बहुत
गंदी है.. तुम कुंठित न होना ये सुन-सुन कर.. तुम्हारी "मर्यादा" हमारे कुछ "पुरूषोत्तमों" ने छलनी कर दी है.. तुम्हारी व्यवस्था का 'चीर-हरण' हो रह था
धीरे - धीरे, हो रहा है अभी थोड़ा तेज.. और होता ही रहेगा
और भी द्रुत गति से... यह मैं नहीं, आज के "दु:शासनों" की लपलपाती लम्बी-सी जिह्वा कह रही है.. रामायण, महाभारत की घटनाएं धर्म व कर्म की नीति पर केंद्रित थीं. और आज हमने तुम्हें भी वहाँ तक पहुँचा
दिया है धक्का दे-देकर. उपरोक्त घटनाओं के नायक-खलनायक श्रीराम व कृष्ण थे.. बस!
अब ये देखना है कि इन "पुरूषोत्तमों" से तुम्हरी लाज बचाने "कल्कि" कब और
कितनी जल्दी आता है.....???? तुम्हारा!