देवना
अरुण आश्रम में जो अंतिम वर्ष के
छात्र होते थे, वे विनोद कक्ष में रहते थे। कमरा
बड़ा था। आलमारी भी बड़ी थी तथा कमरे में ही रखी थी। रेडियो उसी कमरे में था। रेडियो की उपयोगिता उस समय रहनेवाले
ही जान सकते हैं। १९७२ में नेतरहाट को हायर सेकेण्डरी से हाई स्कूल कर दिया गया था,
अतः दो बैच एक साथ ही निकल गए और हमारा बैच : मैं, गिरिराज
बहादुर सिंह तथा ज्योति भ्रमर तुबिद आ गए विनोद कक्ष में। विनोद कक्ष के पीछे ही
आश्रमाध्यक्ष के किचन से घरवाला रास्ता था। एकदम खिड़की से लगा हुआ। स्वर्गीय सहदेव प्रसाद सिंह 'देव'
जी
हमारे आश्रमाध्यक्ष थे। मैं आश्रम का प्रभारी और तुबिद सफाई मंत्री थे। गिरिराज
बहादुर सिंह से कतिपय कारणों से अक्सर हम दोनों की बोलचाल बंद रहती थी। उसकी मित्र मंडली अलग थी,
जिसमें आश्रम के छात्र शामिल नहीं थे। ग्रीष्मकालीन अवकाश के बाद जब देवजी लौटे तब कहलगाँव से उनके
साथ एक नौकर भी आया था - नाम था देवना। एकदम सीधा-सादा।
हिंदी की जगह मगही बोलता था। पीछे वाली खिड़की से अक्सर आता-जाता दीख जाता
था।
एक बार जब वह
जा रहा था, तो मैंने कहा, "अरे देवना! की
हाल छौ?"
वो एक बार
ठिठक कर रुका फिर भाग गया। अब हमलोग उसे अक्सर टोकने
लगे। फिर एक दिन ज्योति ने उसे सुबह के नाश्ते में
मिलने वाली मुसम्मी दिखाई। विनोद आश्रम की खिड़की से ही वह झिझकता हुआ आया,
फिर भाग गया। कुछ दिनों बाद यह प्रक्रिया दुहराई गयी, तो देवना आ
गया और उसने मुसम्मी ले ली। फिर क्या था - अपरिचित होने की धुंध छँटने लगी। एक बार ज्योति ने गुलेल से एक चिड़िया मार गिराई। उसके
लिए कुछ मसाले चाहिए थे। देवना ले आया देवजी के घर से। उस मसाले में लपेट कर उसे
पत्तों में लपेटा गया। फिर लकड़ी की आग पर भूना गया। जबरदस्त स्वाद था। इसका
हिस्सेदार देवना भी बना। मगही और हिंदी मिली भाषा में हम
उससे बातें करते थे। वह हमारी बातें सुन कर फिक्क से मुस्करा देता। एक निश्छल सी
मुस्कान। हम अक्सर सुबह के नाश्ते का फल या काजू किशमिश
का कुछ अंश उसे देते और वह एक तरह से हमारा भक्त हो गया था। गर्मी में कभी ठंडा
पानी पीने का मन किया तो देवना खिड़की रास्ते पहुँचा जाता।
एक दिन की बात है, शाम को हमने देखा की हमारे किचन में वही
पुरानी सब्ज़ी बन रही है। हमलोगों ने सोचा कि चलो आज
बालूशाही खा कर आते हैं, पर किसी तरह वह प्रोग्राम रद्द हो
गया। तभी खिड़की पर देवना दिखाई दिया। हमने उसे रोका
और पूछा क्या बन रहा है श्रीमानजी के घर? उसने कहा - मकुनी। हमारी जीभ से
झर-झर पानी चूने लगा। हमने देवना को धीरे से खिड़की के और नजदीक
बुलाया और कान में फुसफुसाया – चार मकुनी हमें
चाहिए। कौन बनाएगा? उसने कहा कि माताजी के
साथ वही बनाएगा। हमारे जोर देने पर उसने असमर्थता जाहिर की। हम भी मन मसोसकर रह गए। मुर्गा फँस नहीं पाया था।
हमने आधे मन से रात्रि का भोजन किया। करीब दस बजे ज्योति की खिड़की पर हलकी सी
दस्तक सुनाई दी। ज्योति ने उनींदी आँखों से खिड़की खोली। देवना दो मकुनी थमा कर भाग
गया। फिर हम दोनों ने निर्मल आनंद के साथ मकुनी का स्वाद लिया।
अगले दिन हम दोनों ने मौका मिलते ही उसकी पीठ ठोंकी। उसने नाश्ते
में मिलने वाला अंडा माँगा। अगले दिन हम लोगों ने दो उबले अंडे
नाश्ते में से बचाकर उसे दिए। देवना धीरे-धीरे
देवजी की रसोई में हमारा सेंधमार बन गया था। फिर क्या था, अक्सर हमें
सुस्वादु पकवानों का स्वाद मिलने लग गया। एक दिन देवजी
भोजनालय में हमारे साथ भोजन कर रहे थे कि देवना कुछ कागज़
लेकर आया। देवजी ने उसे रख लिया। उनकी आदत थी
कि वे अक्सर जी लगाकर बातें किया करते थे। खाने के दौरान उन्होंने कहा - देवना
है जी। बहुत ही सीधा है जी।
ऐसा कहकर वे हमारी तरफ देखने लगे। हमारी तो भूख ही सरक गयी।
लेकिन गनीमत यह रही कि उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा। समझदार
को इशारा काफी यह मानकर हमलोगों ने इस भोजन वाले सिलसिले को कम कर दिया। लेकिन बहुत चाहकर भी
एकदम बंद नहीं कर पाये। छुट्टियों के बाद जब देवजी लौटे तो देवना उनके साथ नहीं
था। कहीं हमारे कारनामों की सज़ा उसे तो नहीं
मिली? यह हम पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाये।
डॉ. कुंदन कुमार