नाराज है वाजश्रवा आज भी अपने पुत्र से,
समय के परिवर्तन में नहीं बदली परिस्थिति,
हाँ पात्र बदल गये,
स्थिति आज भी उतनी ही गंभीर है,
ख्याल में मवाद भर गया है,
जो रिस रहा उन दिनों से,
कारण तब भी मासूम था,
और आज भी,
पर दवा हमने खुद अपनी मुट्ठी में बंद कर ली है,
आयुर्वेद के जनक “ब्रह्मा” की दाढ़ी में जड़ी-बूटी उलझी हुई है,
जिससे सिर्फ दर्शन निरोग होते आदम के रिश्ते ही नहीं,
हजाम का उस्तरा भी नहीं तरास सकता,
रिश्ते चीख रहे और जुबान के कैंची चल रहे हैं,
वाजश्रवा की नाराजगी चीख नहीं है,
यह तो पुत्र का स्नेह है,
जो मनीषियों को तंग नहीं करता,
नचिकेतस प्रज्ञा विभ्रम में है,
धी, धृति, स्मृति पर विश्वास नहीं,
यमराज का सामना करना तो दूर की बात है,
बात डर की नहीं है फ़िक्र की है,
वाजश्रवा को मनाना कठिन तब भी नहीं था,
और अब भी नहीं है,
पर प्राथमिकता को दीमक चाट गयी,
नचिकेता का ज्ञान, तर्क बौधिक और हार्दिक है,
वाजश्रवा को स्नेह उतना ही सरल था,
जितना कठिन है नचिकेता के तीन प्रश्न,
नादान बच्चा पिता की नाराजगी को समझ बैठा खिलौना
और उसे तोड़ना अपनी जिद,
नाचिकेता के इरादों की चमक यमराज के कंचन-प्रलोभन से कहीं चमकीली है,
धन्य है वाजश्रवा जिसने नचिकेता को जन्म दिया
और साथ-साथ जन्म हुआ पिता पर आस्था।
डॉ. वेंकटेश कात्यायन, 558
कण्व आश्रम, 1996-2000
उत्तम शिल्प
ReplyDeleteकवि एवं मेरी ओर से आपका हार्दिक आभार डॉ. कुंदन कुमार जी. इसी प्रकार उत्साहवर्द्धन करते रहें.
Deleteसादर नमन