नसीबों की यूँ जिसने लिखावट नहीं देखी
सर-ए-उम्र यूँ उसने शिकायत नहीं देखी
बुरा माना है उसने ख़ुदा माना है जिसने
घड़ी भर भी है जिसने वो आहट नहीं देखी
वो कहते रहे हैं आदमी, आदमी है क्या
जिगरवालों के दिल में शराफ़त नहीं देखी
मुझे सब
पता है उनकी भी रात का आलम
न मालूम हो ऐसी हक़ीक़त नहीं देखी
लुटी आज अस्मत है गिरेबान में झाँको
जिगर चीरने वाली हिफ़ाज़त नहीं देखी
ये मौसम नज़ारा औ ज़मी बोलते हर दिन
दिखा कौन है जिसने सजावट नहीं देखी
न हो प्यार की बातें न इज़हार की बातें
ग़ज़ल की 'सपन' ऐसी बनावट नहीं देखी
कुमार विश्वजीत, 391,
अर्जुन आश्रम, 1980-1985 (लेखन का नाम - विश्वजीत 'सपन')
विश्वजीत जी ,
ReplyDeleteअद्भुत ग़ज़ल है।ऐसी उत्कृष्ट रचना के लिए साधुवाद आपको।
आपका
उदय
उदय जी,
Deleteप्रणाम आपको। इस हौसलाफ्जाही के लिए बहुत शुक्रिया। यही मुझे प्रेरित करते हैं।
आपका
विश्वजीत 'सपन'
विश्वजीत जी ,
ReplyDeleteआभार आपका !
कुछ और लेखिनी की कलाकृति से ब्लॉग को समृद्ध करो.उत्तम रचना
ReplyDeleteडॉ. कुंदन कुमार जी,
Deleteसादर आभार आपका इस उत्साहवर्द्धन के लिए. अवश्य मेरी भी रचनाएँ आयेंगीं, किन्तु जब मेरे पास कुछ विकल्प नहीं होगा. मेरा निर्णय है कि प्रत्येक सप्ताह एक रचना इस ब्लॉग पर अवश्य आये. कृपया इसी प्रकार स्नेह बना रहे.
नमन