पनघट पर घट है,
घट में पनघट है,
पनघट के घट से,
घट-घट के पनघट से,
झांक रहा कौन?
बोल सखी! क्यों खड़ी मौन?
डोर है, जल है, घट है,
चौबारे पर पनिहारिनों की जमघट है,
मन में छुपा तेरे कौन सा नट है?
उच्छवासों के सरगम में छुपा हुआ कौन?
बोल सखी! क्यों खड़ी मौन?
रूप है, रंग है, ठिठोली और चुहल है,
भीगे हुए घट में तेरी आँखों का जल है,
तेरे मन के घट को,
पनघट पर आने से रोक रहा कौन?
बोल सखी! क्यों खड़ी मौन?
घट तेरा निर्मल है, उसमें आत्मा का जल है,
पनघट के जल में घट-घट का वासी है,
घट-घट के वासी को, प्रवासी से मिलने से,
रोक रहा कौन?
बोल सखी! क्यों खड़ी मौन?
============================= डा. कुंदन कुमार, 12
अरुण आश्रम, 1968-1975
अरुण आश्रम, 1968-1975
बहुत ही उत्कृष्ट रचना है।
ReplyDeleteआभार
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