रहते सब यहाँ गरीब हैं,
नसीब-नसीब की बात है,
कम ही अपनों के क़रीब हैं।
चाहिए बस सुविधा अपनी,
तरक्की की ही बस परवाह है,
जो दुनिया की सुधि न लेता,
वो तो स्वयं ही तबाह है।
पर चिंता अब पाप है,
मदद करे तो अभिशाप है,
न रह सकते वो सुलझे वो,
इसलिये लगते उलझे वो,
सबके लिए वक़्त निकालो,
अपना ही बंधुत्व जानो,
जीवन है बस पल का खेल,
रख सबसे अपना-सा मेल।
रवि शंकर, 424
आनंद आश्रम, 2001-2005
वाह
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