Monday, July 08, 2013

दर्दे-दिल - एक कविता






गोमुख अब तो डोल रहा है,
काशी बम-बम बोल रहा है,
इसमें नालों की बरसात,
गंगा बहे है सारी रात-


नीलकंठ के जटा से निकली,
शैलपुत्री का वरदान लिया,
ऋषियों के आँगन में जाकर,
उनका भी सम्मान किया,

मेरे धवल नीर को तेरे विषबेलों ने स्याह किया,
मोक्षदायनी के वजूद को दोज़ख की आग से पार किया,
बदरंग मेरे चेहरे को कहीं देख ले ये कायनात,
गंगा बहे है सारी रात-

खुला पारीना दफ्तर वर्क वर्क सफहा-सफहा,
हर वर्के पर लिखी है,तेरे जुर्म की दास्ताँ,
मैंने तुमको दिया है जीवन,तुमने मुझको ज़हर दिया,
तुम्हारी सफ्फाकी ने मेरा वजूद तार-तार किया,

आफताब की चमक से मेरे घाव हरे हो जाते हैं,
इतने पापों के बोझ से सारे मरहम ज़हर बन जाते हैं,
तेरे पापों की गठरी में इन घावों को बांध-बांध ले जाती हूँ,
इसलिए दिन के उजाले में चेहरा नहीं दिखाती हूँ,
कब आएगा वह दरिया,जो करेगा मुझको आत्मसात,
गंगा बहे है सारी रात-
============================   डॉ. कुंदन कुमार, 12 
                                                                    अरुण आश्रम, 1968-1975 

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