Saturday, June 11, 2016

क्या करें ?


रात का पिछला पहर है, 
व्यग्र है जो भी लहर है। 
ढीठ बन पुरवाइयों ने, 
फिर जगाया कौन स्वर है ? 
मूँदकर पलकें तो देखें, 
कौन सा सपना मुखर है, 
रात के पिछले पहर का क्या करें ? 

दोष क्या कादम्बिनी का ? 
रेत का मन ही हमारा। 
पत्थरों की इस गली में 
काँच का है घर हमारा। 
जब कभी मधुमास छाया, 
मन हुआ पतझड़ हमारा। 
टूट जातीं व्यग्र लहरें 
चूम पथरीला किनारा। 
टूट कर बिखरी लहर का क्या करें ? 

संशयों के जाल में फँस, 
फड़फड़ाता मन हमारा, 
पर सदा आकाश छूने को 
मचलता मन हमारा, 
जूझता शंका, द्विधा के 
पाश से भी जो न हारा, 
लोल लहरों से प्रताड़ित, 
ढह रहा पल पल किनारा, 
मन बड़ा आकुल, भँवर का क्या करें ? 

नवपलाशों से सुलगती 
पोर तक पहुँची पिपासा। 
जेठ की इस दोपहर में, 
हंस मर जाये न प्यासा, 
गिद्ध बन मँडरा रही है, 
प्राण तक पैठी निराशा। 
बुद्धि की निर्मम नदी में 
है हृदय का घाट प्यासा। 
जेठ की इस दोपहर का क्या करें? 

सरलता, संवेदना की 
निष्कपट गहराइयों से। 
कुमुद, महुए, केतकी से, 
उन सघन अमराइयों से, 
यह नगर अनजान क्यों है 
स्नेह की परछाइयों से ? 
पत्थरों के इस नगर का क्या करें ? 

आँधियाँ चलने लगी हैं, 
हम चढ़े जब भी शिखर पर। 
बिजलियाँ गिरती रही हैं 
क्यों हमारे ही शिविर पर?
प्रश्नचिन्हों ने न छोड़ा, 
आजतक पीछा कहीं पर। 
वर्जनाओं के तने फन, 
हम रुके जिस ठौर पल भर। 
वे कहाँ लौटे कभी जो 
चल पड़े ऐसी डगर पर। 
धुंध में खोती डगर का क्या करें? 

मत लगाओ आज अंकुश, 
इस उफनती सी लहर पर। 
अब सुधा हो या गरल हो, 
आज झरने दो अधर पर। 
छाँह के प्यासे चरण अब, 
दृष्टि पर मेरी शिखर पर। 
राख हो जायें भले ही, 
आग की तपती डगर पर, 
नीड़ छूटे, साँस टूटे, 
ध्यान क्या दूँ भंग स्वर पर ? 
नीड़ से बिछड़ी डगर का क्या करें ?" 

*****शैलेन्द्र कुमार

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