पश्चिम में वक़्त ज़रा तेज़ भागता है
या फिर महीने के बदले हफ़्ते की इकाई
रफ़्तार की तेज़ी का एहसास देती है।
कभी कभी बड़ी शिद्दत से याद आता है
अपना ऊँघता-सा छोटा-सा गाँव
जैसे तारीख़ के पन्नों में
ठहरा हुआ वक़्त का एक टुकड़ा
चीज़ें कुछ थोड़ी थीं
पर इत्मीनान बहुत था।
अब तो न वो नगरी, न वो ठाँव
न बाँसों की झुरमुट, न बरगद की छाँव
अब तो बस भागता वक़्त है और भागते आप
सोम से शुक्र, सुबह से शाम
बस भागमभाग, भागमभाग
अनवरत, लगभग निरुद्देश्य
गंतव्य बस एक पड़ाव
मंज़िल की कौन सोचता है?
और फिर होती है शाम
दिन भर का थका हारा वक़्त
जब थोड़ी साँस लेता है
तब तारी होता है
तुम्हारा पुरसुकून ख़याल
पड़ावों के बीच जैसे
मंज़िल का गुमान
मुझमें तुममें कोई तो राह है!
डाॅ विभास मिश्रा
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