बरसो वारिद बरसो वन-वन
हे सरसवान जीवनधर बन
धरती गतकल्मष हो जाए
नूतन प्ररोह निकल जाए
करुणार्द्र दृष्टि से देख जरा
विहँसे जग के सारे उपवन।
गर्जन से प्यास नहीं जाती
तर्जन से शान्ति नहीं आती
नदियाँ,नद, घट भरकर निर्झर
दृगहर्षित हो जा चमन-चमन।
हो प्रजावती धरती मेरी छोड़ो
नभगर्जन की भेरी चातक का
प्रिय सहचर जा बन खिलने दो
आँगन, तुलसी बन।
तेरा चिन्तन हो अतिविराट
हे नील गगन के मानराट
गौरव का हर्ष लुटाकर तुम
बन जा निसर्ग के सखापवन।
मानद भूषण तू परम व्योम के
धरती, नभ के, उत्तम कुल के हो
त्यक्तवर्म वर लोकोत्तर प्रणयी
मन भाव करो गोपन।
प्रोषितपतिका की साँसें बन-बन
वत्सवत्सला अंचल घन
धरती की दीर्ण दरारों में उतरो
उशती रजबाला बन।
किंजल्क निचय पर करो दया
गढ़ दो लुटकर प्रतिमान नया
हे मरुद्रथी शक्रावतार सब करें
तेरा नत अभिनन्दन।
*** "मधुपर्क" ***
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