प्लास्टिक के फूलों की ज़िन्दगी कितनी सूनी है,
देखने में असली पर हक़ीक़त में नक़ली है।
कितना ही चाहें कि फ़िज़ा में ख़ुश्बू बिखेर दे,
भौरों को अपने कलेजे में समेट ले।
माली से कह दे कि उसका माला बना दे,
या किसी देवता के चरणों पे चढ़ा दे।
होता नहीं ये कुछ भी कभी उसकी ज़िंदगी में,
बस मुस्कुराना भर है उसे अपनी ज़िन्दगी में।
कौन कहता है कि वो कभी मुर्झा नहीं सकते,
देखा है कभी झाँक कर उनकी आँखों में तुमने।
बढ़ाते हैं घरों के ड्राइंगरुम की शोभा वो तुम्हारी,
पाते हैं बड़ाई के चन्द अल्फ़ाज़ वो हमारी।
कुछ कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते,
प्लास्टिक के फूल जो ठहरे, नक़ली
ये कहलाते।
शील रंजन
शायद यह प्लास्टिक के फूल ही अपनी जिंदगी को जीते हैं।
ReplyDeleteजीकर भी दूर कहीं कास्मेटिक जीवन की गाथा सुनाते हैं।
uday kumar जी,
Deleteसादर आभार उपस्थिति के लिये एवं प्रतिक्रिया के लिये।
सादर नमन