(कहीं इन्हें भूल न जाएँ)
इस लेख या संस्मरण में मैं उन लोगों के बारे में लिखना चाहूँगा, जिनके विषय
में मुझे विश्वास है कि लिखाड़ मित्रों की लेखनी कभी भी न चलेगी। इनका उपयोग करते हुए, इनका आदर और निष्ठा पाते हुए
और कभी-कभी तिरस्कार करते हुए भी, जिनके संबंध में मैं आश्वस्त हूँ कि सभी छात्र, शिक्षक, कर्मचारी के अंतर्मन में
स्नेह और भरोसा रहा है। मैं चर्चा कर रहा हूँ अपने तैंतीस वर्ष के उन साथियों की
जिन्हें हम सेवक और कर्मचारी कहते हैं। मेरे ध्यान में सबसे पहले जो
दो नाम आते हैं, वे हैं फ्रांसिस आइंद और पतरस बाच के। पतरस शायद विद्यालय के सबसे
पहले सेवक और कृषि बगान से संबंधित थे। शांत, अपने काम से काम रखने वाले। कृषि-शिक्षकों
(श्री राधा सिन्हा, श्री
रघुवंश नारायण और श्री गुफ्रान) और छात्रों से ही उनका विशेष संपर्क रहा। संभावना
है कि अनेक शिक्षकों ने उनका नाम न सुना हो, उनसे मिले न हों और उन्हें देखा हो तो भी
पहचानते न हों। पर इसमें रंच मात्र भी संदेह नहीं है कि उन्होंने कृषि-बगान के
उनके दायित्वों को बखूबी सँभाला, मन से सँभाला, परिश्रम
और धैर्य (शिक्षक और छात्रों के साथ कभी-कभी कठिन तालमेल के कारण) से निर्वाह किया। मेरा
सेवकों में पहला संपर्क फ्रांसिस आइन्द से हुआ। प्रथम सेट लगभग तैयार हो गया था। फर्नीचर
मुख्य बढ़ई मसीह दास की देख-रेख में बन रहा था। प्रथम बैच के शिक्षकों के अंतिम चयन
हेतु उन्हें उनकी पत्नी और 14 वर्ष की उम्र से कम के एक बच्चे
सहित नेतरहाट बुलाया गया था।
वे विद्यालय के प्रथम प्रधानाध्यापक श्री नेपियर के आतिथ्य में 24 घंटे विद्यालय में रहते थे। उनका जलपान, भोजनादि श्री नेपियर के साथ
होता था और साथ में विद्यालय की संकल्पना, दिनचर्या, पाठ्यक्रम, कार्यकलापों
आदि के संबंध में भी चर्चा-विमर्श आदि होता था। आश्रम-भ्रमण, विद्यालय-परिसर का भ्रमण भी
हुआ करता था। दूसरे दिन विद्यालय के
शेवरले वैन से वे वापस राँची जाते थे और संध्या तक इसी हेतु दूसरे-दूसरे शिक्षक आ जाते थे। शिक्षकों के आने-जाने की बीच की अवधि में, आयोग की
अनुशंसा में प्रथम नामित होने के कारण बिना इस दूसरे साक्षात्कार की औपचारिकता के
मुझे योगदान देने का आमंत्रण मिला था। 9
अक्तूबर, 1954 की संध्या को मैं विद्यालय आ गया था और प्रधानाध्यापक के साथ न केवल
विद्यालय के कार्यक्रम, पाठचर्चा आदि के विषय में अंतिम रूप दे रहा था बल्कि उनके सौजन्य से
अंतर्वीक्षा के लिए आये शिक्षकों के संबंध में विमर्श करता और अपना मंतव्य भी देता
था। उसी समय, फ्रांसिस
आइंद से मेरा परिचय-संपर्क हुआ।
तत्कालीन प्रथा के अनुसार वह सभी को ‘सर’ कह
संबोधित करता था। उन्हीं दिनों मेरे मित्र तथा
विकास-विद्यालय के शिक्षक श्री रामकृष्ण टंडन, जो कि बाद में मुरादाबाद के डिग्री कॉलेज के
विभागाध्यक्ष भी हुए, मेरे यहाँ आये थे। उन्होंने फ्रांसिस आइंद के ‘सर’ कहने पर
कहा कि इसकी जगह मैं तुम्हें एक दूसरा, अधिक उपयुक्त शब्द बतलाता हूँ। उसी का उपयोग
किया करो। हिंदी माध्यम का स्कूल है। वह शब्द है ‘श्रीमानजी’। तभी से
विद्यालय में ‘श्रीमानजी’ का प्रचलन हुआ, और आज विद्यालय के छात्रों की पहचान भी बन गया है।
यही फ्रांसिस
आइंद शीघ्र ही ‘आश्रम-सेवक’ के स्थान पर
‘पुस्तकालय सेवक’ बने। अपने अध्ययन (उन्होंने मेरे पुत्र को अंग्रेजी में पत्र भी लिखा था), निष्ठा और कर्मठता, पुस्तकों
में रुचि, व्यवहार-कुशलता और शालीनता के कारण न सबका मन मोह लिया बल्कि पुस्तकालय के
लिए एक एसेट/परिसंपति भी सिद्ध हुए। इसी बीच में उन्हें कुष्ठ रोग भी हो गया था।
बोम्बे के कुष्ठ रोग अस्पताल में उनका इलाज़ भी हुआ था और
स्वस्थ भी हो गए थे। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि पुस्तकालय में उनकी
पुनर्स्थापना के औचित्य पर मैंने एक गोपनीय पत्र के द्वारा शंका उठाई थी। चिकित्सकों
की अनुशंसा और छात्रों के प्रति आश्वस्त होकर वे पुनः ‘पुस्तकालय-सेवक’ बने और
सेवा-निवृत्ति तक अत्यंत योग्यता, विशिष्टता से कर्तव्यों का निर्वाह किया। उनके
साथ काम करने का मुझे गौरव है और जिन गिने-चुने लोगों (शिक्षक, कर्मचारी, सेवक आदि) के प्रति मेरे हृदय
में स्नेह और आदर भाव है, उनमें फ्रांसिस आइंद एक हैं। यही कारण है कि सेवा-निवृत्त
होने के समय स्मृति-स्वरुप उनकी फोटो मैंने खींची थी। पुस्तकालय
में फ्रांसिस आइंद के समकक्ष और उसके दूसरे स्तम्भ मिखेल मिंज थे। शांत, मितभाषी, कर्तव्यनिष्ठ, व्यवहार-कुशल
और विद्यालय के विशाल पुस्तकालय में पुस्तकों के संबंध में उनकी जानकारी अभूतपूर्व
थी। जब भी मुझे किसी की पुस्तक की आवश्यकता होती थी, और यह अकसर ही आया करती थी, तथा “खुली
दराज़-प्रणाली” के कारण वह नहीं मिलती थी तो मिखेल उसे कहीं न कहीं से खोज निकलते थे
या उसका अता-पता बता देते थे। पुस्तकालय की ‘निर्भय-व्यवस्था’ के ये दोनों
कर्णधार थे। पुस्तकालय की चर्चा हो और स्व गौरीशंकर गुप्त का
उल्लेख न हो, यह
अकल्पनीय है। प्रारंभ में ‘पुस्तकालय-सहायक’ के रूप
में यह काम श्री नवनी गोपाल बनर्जी ने किया। उसके बाद विधिवत नियुक्ति श्री राम
निरंजन दुबे की हुई। मैंने उनसे एम.ए. करने के लिए कहा और यह आश्वासन दिया कि
उन्हें जिस भी पुस्तक, स्टैण्डर्ड वर्क की ज़रूरत होगी उसे मैं मंगा दूँगा। प्रधानाध्यापक का
विश्वास, अधिकार-प्रदत्तता और स्वतंत्रता के कारण ही मैंने ऐसा किया था। मेरी यह
धारणा रही है, आज भी है, कि
विद्यालय के हर तबके के व्यक्ति को पठन-पाठन की सुविधा होनी चाहिए, अपनी
योग्यता-वर्धन के लिए उत्साहित करना चाहिए तथा सुविधा भी दी जानी चाहिए। मुझे यह
कहते हुए संतोष हो रहा है कि सभी प्रधानाध्यापक/प्राचार्यों ने इस क्षेत्र में
मुझे पूर्ण स्वतंत्रता दी। उसी का फल है कि विद्यालय-पुस्तकालय के कारण कितनों ने
अपनी योग्यता-वृद्धि की और उच्चतर पदों पर गए।
हाँ, तो बात श्री राम निरंजन दुबे की हो रही थी। उन्होंने एम ए किया, कॉलेज में
लेक्चरर हुए, पी.एच.डी. की, विभागाध्यक्ष भी बने। अभी वे कहाँ हैं मुझे ज्ञात नहीं है। श्री
रामनिरंजन जी के बाद श्री गौरीशंकर गुप्त की नियुक्ति हुई। मैं ही प्रत्याशियों का
साक्षात्कार ले रहा था। कोषपाल श्री मुनमुन प्रसाद के साले भी एक प्रत्याशी थे।
भण्डार में सहायक थे, कर्मठ थे, कागज़-पत्र
को कायदे-करीने से रखने वाले थे। प्रधान-श्री दर के पास प्रभावशाली और
कार्यालय-व्यवस्था में उनके। श्री दर के पास स्वाभाविक ही श्री मुनमुन प्रसाद की
सिफारिश पहुँची। दूसरी ओर श्री गौरीशंकर गुप्त, बी.कॉम, अनुभव-रहित, शांत, शालीन, सुन्दर
लिपि के धनी। बलिया के थे, श्री
अक्षयवटनाथ मिश्र (सचिव, पी.ए.) के
गाँव के परिचित। उन्होंने भी मुझे कहा। श्री दर ने भी चलते हुए मुनमुन प्रसाद का
संकेत भी किया था, जिसमें
मैंने कहा था: ‘साले का
संबंध जोर मार रहा है’। श्री दर ने दबा दिया और कुछ नहीं कहा। मुझे बिना राग-द्वेष के श्री
गौरीशंकर गुप्त उपयुक्त लगे और उनकी नियुक्ति हो गयी। सचमुच
श्री गौरी शंकर गुप्त विद्यालय-पुस्तकालय के लिए वरदान सिद्ध हुए। पुस्तकों से
उन्हें प्रेम था ही, उन्हें यह
भी याद था कि पुस्तकालय में कौन-कौन सी पुस्तकें हैं, कहाँ हैं।
इस क्रम में मैं छोटानागपुर आयुक्त और विद्यालय कार्यकारिणी के अध्यक्ष श्री
प्रभाकरन के एक कथन का उल्लेख करना चाहूँगा। श्री प्रभाकरन जब भी विद्यालय आते थे
तो सीधे पुस्तकालय जाते थे, आइंद से
पुस्तकों की मांग करते थे और श्री गुप्त न केवल यह बताने में समर्थ थे कि पुस्तक
है या नहीं, बल्कि
खोजकर (तत्काल ही) उन्हें उपलब्ध भी करा देते थे। श्री प्रभाकरन ने मुझे स्वयं
उनकी विलक्षण स्मृति, कार्यकुशलता, मृदुता और शालीनता की
उन्मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। श्री गुप्त शांत स्वभाव के
थे। पद-लोभ उनमें नहीं था। वेतन-पुनरीक्षण के बाद वे कार्यालय में वरीयतम हो सकते
थे, कोशिश
करते तो प्रभावशाली पद पर अपना दावा ठोक सकते थे। पर वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे। पुस्तक
और पुस्तकालय में रच-बस गए थे। उनका प्राप्त साथ मेरा सौभाग्य था। बाद में श्री
गुप्त ने काशी विश्वविद्यालय से पुस्तकालय विज्ञान में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण
की और सेवा-निवृति तक इस पद पर रहे।
कर्मचारियों में से अनेक का
स्मरण करना चाहूँगा पर पृष्ठ-सीमा, समय-सीमा और अन्य कारणों से
सभी का उल्लेख अभी संभव नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि उनका योगदान कम रहा है
या वे महत्वपूर्ण नहीं थे। अतः अभी मैं केवल तीन सहयोगियों की मैं चर्चा करूँगा। मेरे
अन्य मित्र अन्यथा न मानेंगे। सर्वप्रथम मुझे उल्लेख करना
है श्री हुरहुरिया जी का। सुबह और शाम, दिन और रात, छोटा या बड़ा जो भी काम उन्होंने
बिना किसी हील-हवाला के बिना, पद मर्यादा का ध्यान रख, प्रसन्नचित्त, धैर्य और अपनी सामर्थ्य भर
किया, बखूबी किया। श्री दर की तरह छोटे-बड़े सभी काम करने में वे तत्पर रहते थे। संकोच
और मद से वे मुक्त थे। वे ‘केयरटेकर’ थे और उत्कृष्ट केयरटेकर थे। दूसरे हैं श्री रामनाथ सिंह, वरीय, लम्बे
रामनाथ सिंह। उनके उतने ही समर्थ साथी थे श्री रामायण शर्मा जी। भोजन-सामग्री, पाकशाला व्यवस्था के कारण
इनकी ‘ड्यूटी’ सचमुच चौबीस घंटों की होती थी। पाकशाला प्रभारी के ये प्रिय थे। सामग्री के
साथ पाकशाला हिसाब-किताब (बड़ा कठिन काम) में ये केवल पूरी सहायता ही नहीं करते थे
वरण उन कठिनाइयों से उबारने में सदा आगे रहते थे। ‘न’ कहना
इन्होंने सीखा ही नहीं था और शालीनता, भद्रता, प्रसन्नता
इनकी वृति थी। सचमुच मैं उपर्युक्त ‘त्रिमूर्ति’ से न केवल
प्रभावित था बल्कि इनकी बहुत इज्ज़त करता था।
किसी भी
आवासीय विद्यालय के आधार स्तंभ दो होते हैं। एक शिक्षक और दूसरे रसोइये। रसोइये
में दो-तीन नाम विशेष रूप से ध्यान में आते हैं। श्री छोटू सिंह बहादुर। सभी प्रकार
का खाना-पकवान बनाने में माहिर। मेहनती, तेज़-तर्रार भी। जहाँ भी रहे, वहाँ के खाने
में साफ़ बदलाव दिखने लगता था। पाकशाला प्रभारी चाहती थी कि उनके सेट में बहादुर
आये, पर
कुछ-कुछ सहमी भी रहती थी। बोलने वाला भी बहुत था पर धृष्ट नहीं। ‘बहादुर’ के साथ जो
दूसरा नाम याद आता है वह स्व श्री हरिकांत राय का। श्री
बी. के. सिन्हा उन्हें लाये थे। सभी प्रकार का भोजन-पकवान बनाने में माहिर। थकावट
का नाम नहीं। और भी थे, हैं, उन सबका उल्लेख तो संभव नहीं। पाकशालाओं में काम करने
वालों के संबंध में ध्यान रखने की बात है कि उनकी ड्यूटी सातों दिन की होती थी, पर्व-त्यौहार
में तो काम का बोझ बेइंतहा बढ़ जाता था। रसोइये, सेवक जी, जी-जान से
जुटकर काम करते थे। कभी-कभी जब “घ” की मुहिम छिड़ती थी तो
पाकशाला प्रभारी चाहे खीज जाएँ पर इनके चहरे पर शिकन नहीं आती थी। मेरा विश्वास है
कि आप सभी मुँह में उनके लज़ीज़ भोजन का स्वाद अभी भी होगा – मेरे मुँह
में तो है! वे सभी हमारे स्नेह के हकदार हैं।
विद्यालय
के कुछ ही लोगों के संबंध में इस संस्मरणात्मक लेख को समाप्त करने से पूर्व मैं एक
और व्यक्ति, स्व भीम सिंह की चर्चा करना चाहूँगा। उनके संबंध में प्रवाद फैलाया गया था
कि वे निष्कलंक नहीं हैं। उनको निकट से मैंने जाना है। मुझे कोई भी त्रुटि उनके
व्यवहार-चरित्र में नहीं मिली। सरल, परिश्रमी, विश्वसनीय
मैंने उन्हें जाना है। भोजन-पकवान बनाने में दक्ष थे। हमलोगों के दुर्भाग्य से
उनका निधन सेवा-काल में हो गया था। कहने को बहुत कुछ है। कितनों
का उल्लेख छूट गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि उनका योगदान नगण्य रहा है। कोई इतिहास
लिखा तो नहीं जा रहा है। इसलिए ऐसे सभी मित्रों से मैं करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ।
*** डॉ मिथिलेश कांति
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