एक छोटी सी चाह है मेरी
इतना सा अधिकार जो मिलता
इस महल के शिलालेख में
मेरा भी एक नाम जो खुदता।।
ईंटा पाथा पत्थर तोड़ा
सर पर ढोकर छत को जोड़ा
गिरता-पड़ता, घायल होता
माँ बच्चे की चिंता छोड़ा।।
सूखी रोटी नमक और मिर्ची
जो भी मिलता पेट में डाला
पानी पीने की न चिंता
कपड़े की तो बात ही छोड़ा।।
धूल-धूसरित बदन को लेकर
रोग-चोट की कभी न सोचा
बोरा मिले या मिले चटाई
सब पर थककर नींद से सोता।।
जब भी कोई उत्सव होता
सब को पूरी हलवा मिलता
तब भी मैं सूखे भूँजे पर
मन मसोस संतोष ही करता।।
काश कभी ऐसा जो होता
मंत्री अफसर साथ बैठकर
एक पंगत में साथ साथ ही
मैं भी अपना भोजन करता।
समारोहों के भाषण में
सबके नाम की ताली बजती
अपनी बारी का इंतजार कर
मन ही मन मैं रोया करता।।
सपने में भी कभी न सोचा
काश कभी ऐसा जो होता
माइक पर किसी भाषण में
मेरा भी कोई नाम जो लेता।।
जब भी कोई अस्पताल बनता
खुश हो हो कर ईंटों को गढ़ता
अब हम भी निरोग रहेंगे
मन ही मन ये सोचा करता।।
रच रच कर अस्पताल बनाता
पर जब भी मैं बीमार पड़ता
पैसे के अभाव में अस्पताल का
गेट सदा बंद ही पाता।।
भवनों के निर्माण पर जब भी
शिलालेख लगवाया जाता
मंत्री अफसर इंजीनियर और
ठीकेदार का नाम ही खुदता।।
देख देख कर मन कचोटता
काश कभी ऐसा जो होता
मेरा नाम भी शिलालेख में
साथ साथ खुदवाया जाता।।
कितना खुश होता मैं उस दिन
नाचता गाता खुशी मनाता
तगाड़-करनी बजा बजाकर
ईंट बालू सबको सुनाता।।
रामू मुनिया कल्लू चाचा
काकी दादी सगे संबंधी
सखा दोस्त यार और संगी
सबको गौरव से दिखलाता।।
रामू मुनिया को स्कूल भेजने में
कभी न कोई कोताही करता
ताकि वह भी स्वयं इसे पढ़
अपने दोस्तों को पढ़वाता।।
मालिक से कैमरा माँगकर
सबका एक फोटो खींचवाता
सब फोटो को सहेज सहेजकर
अपना एक प्रोफाइल बनाता।।
मुनिया की शादी के लिए
जब रिश्ते की बात चलाता
मुनिया की सीवी में
परिवार की उपलब्धि भी जुड़वाता।।
मेरे मरने पर भी यह तो
मेरे श्रम की निशानी बनती
पोती पोता भी खुश होकर
अपने पुरखों पर गौरव करता।।
आनन्द से प्रेरित होकर
और कठिन श्रम करने लगता
सब के घर के कोने-कोने को
खुशियों के ही रंग सजाता।।
काश कभी ऐसा जो होता
मेरी चाहत पूरी होती
मैं खुशियों के उमंग में
सबकी चाहत पूरी करता।।
काश कभी ऐसा दिन आता !
विजय प्रकाश
(1967-72)
अरुण आश्रम
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