Monday, May 09, 2016

युद्ध या षड्यंत्र - एक कहानी



महाराज वीरभद्र ने अश्व की गति को सहसा विराम दिया। इस बीहड़ अरण्य में ऐसी अनिन्द्य सुंदरी कहाँ से अवतरित हो गयी। महाराज के सारे साथी बहुत ही पीछे छूट चुके थे। महाराज वीरभद्र को अश्व से उतरने में शुरू में कुछ संकोच हुआ। पर सुंदरी की दिव्य मुस्कान के सामने बेबस थे।

महाराज ने पूछा – "कौन हो सुंदरी?" 

प्रति-उत्तर में सुंदरी ने एक खिलखिलाती हँसी ध्वनित की। उस हँसी ने महाराज के कानों में मानो शहद घोल दिया हो। पूरे वन में हँसी प्रति-ध्वनित होकर महाराज के कानों में मिश्री के समान घुल रहा था। महाराज यंत्रवत् सुंदरी के सम्मुख आसन्न हो रहे थे। महाराज की नासिका-छिद्र की हवायें उष्ण होनी शुरू हो गयी थी। एक कदम और आसन्न होकर महाराज ने सुंदरी के केश-कुञ्ज को अपने हाथों का सहारा दिया। आश्चर्य ...! सुंदरी ने कोई प्रतिकार नहीं किया। महाराज की विवशता और बढ़ती गयी। उन्होंने अपने अधरों को सुंदरी के अधरों पर रख दिया। सुंदरी के मुख से अमृत-श्राव हुआ और महाराज के गले को तर करता हुआ चला गया। शनैः-शनैः महाराज और सुंदरी के वस्त्र अंगों पर कम होने लगे। महाराज सुंदरी को बाहुपाश में बाँध कर सुधा-वृष्टि करने लगे। सुंदरी कभी प्यार-प्रतिकार वश तो कभी चीत्कार ध्वनि के साथ महाराज के बाहुपाश के ऊपर अपनी पकड़ मजबूत करती हुई चली गयी। वन की नीरवता ने इन दोनों के मिलन-ध्वनि का स्थान ले लिया। पत्तियों की चरमराहट और पुष्पों की सुगंध के बीच दोनों उन्मत्त होकर मदन-लीला में डूब गए। एक पल के बाद दोनों की प्यार-तन्द्रा टूटी। महाराज ने अपनी साँसों की रफ्तार को काबू करने के पश्चात् सुंदरी को भर-मन निहारा। 

सुंदरी लज्जा के साथ बोली – "राजन, आज आपने मेरे यौवन को पूर्ण किया।"

महाराज निःशब्द होकर सुंदरी को निहार रहे थे। अब महाराज के मुख पर धीरे-धीरे सांसारिकता हावी हो रही थी। मुख पर चिंता की रेखायें गहरी होने लगी। 

सुंदरी ने पूछा – "राजन, चिंता का कोई विशेष कारण?"

महाराज ने कहा - "कोई विशेष नहीं, सुंदरी।"

सुंदरी ने फिर पूछा – "कोई न कोई कारण तो है राजन?"

महाराज ने कहा – "वातापी के चालुक्यों ने ताम्रलिप्ति-उत्तरापथ छोड़ने की सलाह दी है। नहीं छोड़ने पर परिणाम भुगतने को तैयार रहने को कहा है।"

सुंदरी ने कहा - "राजन बस इतनी सी बात! आपके शौर्य और पौरुष की चर्चा तो कन्नौज के “मौखरी” भी करते हैं। आपने स्वर्ण-गंडकी के तीर पर युद्ध में मौखरियों के छक्के छुड़ा दिए थे।"

राजा बोले - "सुंदरी उस युद्ध में वंग-नरेश शशांक सेनापति थे। मैंने तो मात्र युद्धनीति बनायी थी।"

सुंदरी ने पूछा - "राजन ऐसी क्या है आपकी युद्धनीति में जिसको महा प्रतापी हर्षवर्द्धन भी नहीं भेद पाया!"

राजा बोले - "सुंदरी यह गुप्त-नीति है।"

सुंदरी ने आग्रह किया - "राजन मुझसे क्या भेद मैंने तो सर्वस्व आपको सौंप दिया।"

राजा बोल उठे - "हाँ सुंदरी अब तुमसे कैसा भेद! तुम तो मेरे हृदय के अन्तःस्थल में समाहित हो गयी हो। तो सुनो सुंदरी, मैं चक्रव्यूह के स्थान पर अष्टव्यूह की रचना करता हूँ। चतुरंगी सेना को सजाने के बाद प्रकृति के चार रूपों का प्रयोग करता हूँ। मेरी सर्वश्रेष्ठ आरक्षित सेना धूल, पवन, अग्नि और नदी के सहारे शत्रु को दिग्भ्रमित करती है।"

सुंदरी ने प्रश्न किया - "वो कैसे राजन?"

राजा ने उत्तर दिया - "मैं अपनी सेना को हवा की दिशा में सजाता हूँ, जिससे यदि धूल-शस्त्र का इस्तेमाल करना चाहें तो पवन की गति का लाभ उठाकर शत्रु को धूल से दृष्टि-विहीन कर दें! वन का सहारा लेकर अग्नि-भय उत्पन्न करता हूँ और अंत में समस्त सेना को नदी के जल अथवा दलदल में खींच कर गतिविहीन कर देता हूँ।"

सुंदरी ने कहा - "राजन, बहुत ही गहरी रणनीति है आपकी।"

राजा ने चेतावनी दी - "ध्यान रहे सुंदरी, किसी को भी इस विद्या की कानों-कान खबर न हो।"

सुंदरी बोली - "राजन आप निश्चिन्त रहें। अब मेरे जाने का समय हो गया है, क्या आप मुझे नदी-तीर पर छोड़ देंगे? मेरी सहेलियाँ वहाँ प्रतीक्षा कर रही होंगी।"

चालुक्यों की चुनौती को स्वीकार करते हुए गवयपुरम नरेश वीरभद्र ने टाटीनीर के किनारे अपनी सेना को सुसज्जित किया। एक ओर छोटी पर्वत-शृंखलाएं तो दूसरी ओर वन-कुञ्ज, पीछे सदानीरा टाटीनीर और एक ओर शत्रु के लिए खुला क्षेत्र। प्रभाकर की प्रथम किरण के साथ दुदुम्भी बजी और महाराज वीरभद्र प्रजा के जयघोष के साथ रणभूमि की ओर बढ़ चले। चालुक्यों ने विशाल व्यूह की रचना की थी। चारों ओर अश्वों और हाथियों की चिंघाड़ से आसमान फटा जा रहा था। महाराज ने सेना का निरीक्षण किया। कुलदेवी दक्षणदेवी और महारानी के जयघोष के साथ खड्ग निकाला और विद्युत् के समान चालुक्यों को रौंदना शुरू किया। बड़ा भीषण युद्ध चल रहा था। चालुक्यों के पाँव उखड़ने लगे सहसा किसी ने पीछे से आवाज़ लगाई - "राजन !" 

महाराज वीरभद्र पीछे मुड़े और पलटकर देखा तो स्तब्ध रह गए और कहा – "सुंदरी तुम!" 

सुंदरी ने कहा - "मूर्ख राजन, सुंदरी नहीं, चालुक्य-पुत्री रश्मिप्रभा कहो .........! और आज के युद्ध में चालुक्य सेनापति मैं ही हूँ।"

वीरभद्र बोल उठे - "नहीं नहीं सुंदरी, ऐसा नहीं हो सकता है।"

सुंदरी ने पुनः कहा - "मूर्ख राजन, मैं तुम्हारी सेना को नदी और वन से दूर खींच कर दूसरी ओर ले आई हूँ। सावधान राजन, तुम मेरा वार झेलने के लिए तैयार रहो।"

इतना कहकर रश्मिप्रभा ने चमचमाती खड्ग से राजन पर प्रहार किया। महाराज वीरभद्र ने हतप्रभ होकर वार को रोकने का प्रयास किया। परन्तु इसी बीच एक सनसनाता हुआ विशिख महाराज वीरभद्र के गले को चीरता हुआ निकल गया। कटे वृक्ष की तरह महाराज वीरभद्र अश्व से नीचे गिरने लगे। रश्मिप्रभा ने एक जोर का अट्टहास लगाया –सारा युद्धभूमि सहम गया। चालुक्य सेना शत्रु का नाश करती हुई गवयपुरम नगर की ओर बढ़ने लगी। महाराज वीरभद्र की आँखें बंद हो रही थी – बंद होती आँखों से उन्होंने देखा कि रश्मिप्रभा युद्धभूमि में ही चालुक्य नरेश पुलकेशिन के अधरों को पी रही है। इधर महाराज मर्त्य-लोक से प्रयाण कर रहे थे, उधर गवयपुरम में सूर्य अस्ताचल में डूब रहा था ....!! 

***** उदय कुमार

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