Saturday, August 03, 2013

मुस्कान - एक कविता



विधा - मुक्त छंद 

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मेरी पेशानियों पर बल पड़ा था,
नसें तमतमा रही थीं चेहरे की,
आँखें बिन बरसी मेघ बनी थी पर,
बिजलियाँ कड़क रही थी।
जबड़े जानी दुश्मनों की तरह भिंच रहे थे आपस में,
ग्लानि भी थी कुछ निर्णयों की।

तभी मैंने कुछ दूर से खुद को देखा।

अपनी पेशानियों पर बल पड़ते देखा,
चेहरे की नसों को तमतमाते देखा,
आँखों के मेघ और तड़ित को देखा,
गुथ्थमगुथ्था अपने जबड़ों को देखा,
अपने निर्णयों को लड़ते देखा।

अब बताऊँ मैंने क्या देखा??

अपनी पेशानियों को धीमा पड़ते देखा,
चेहरे की नसों को थमते देखा,
आँखों को शुभ्र और शांत होते देखा,
अपने जबड़ो को भाइयों की तरह,
आपस में गले मिलते देखा।
मैंने भूत को विलुप्त होते देखा.

फिर बताऊँ मैंने क्या देखा??

मैंने खुद को मुस्कुराते देखा।

आशीष चन्दन,

वर्ष - 1998- 2002 ;

क्रमांक - 68;

आश्रम - आनंद.

2 comments:

  1. अद्भुत हास्य

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  2. कवि एवं मेरी ओर से आपका हृदय से आभार डॉ. कुंदन कुमार जी.

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