डाक्टर रतनलाल गुप्ता के यहाँ रतन और लालों की वर्षा झमाझम होती है और इसमें गुप्त कुछ भी नहीं। उनके प्रधान असिस्टेंट हैं-डाक्टर प्रताप सिंह, खुले दिल के बदज़ुबान व्यक्ति, जो बातें करते हैं तो लगता है कि खुरपी चला रहे हैं। कहते हैं दोनों डाक्टरों के हाथों में जादू है, सो मरीज दूर-दूर से मुँह उठाये चले आते हैं। जो ख़ुद नहीं आते हैं, उन्हें दलाल रेलवे स्टेशन, बस स्टैण्डों और मेडिकल काॅलेजों से तारीफों के पुल बाँधते हुए उठा ले आते हैं। घर और क्लिीनिक कंधा से कंधा मिलाये खड़े हैं। एक संगमरमर का महल है, तो दूसरा गारे चूने पर किसी तरह ढहता ढिलमिलाता उठा-बैठा, बहुत पुराना, खंडहरनुमा अंधेरा मकान है, जिस पर रंग-रोगन की कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं की गयी।
‘‘जिनके जीवन में ही कोई रंग नहीं, उनकी नैन शुद्धि की ज़रूरत ही क्या, गठरी संभाले किसी तरह जी ले यह बहुत है।’’ पान की पीक खिड़की से बाहर पिच्च से फेंक कर हो-हो करते हुए डाक्टर प्रताप हँस पड़ते हैं-‘‘यह हिन्दुस्तान नहीं सुधरेगा।’’
और इस न सुधरने वाले हिन्दुस्तान के दिलेर बाशिन्दे, सात रोग बदन में बछरू की तरह पाले आराम से उस क्लिनिक में टिक भी जाते हैं, चूहे-छुछून्दर, बिल्ले-पिल्ले, तिलचट्टे-मकड़े, आदि प्रायः निरापद जीवों के अगल-बगल सोकर।
श्रीमती रतनलाल बड़े घर की नखरीली नार हैं, डाक्टरों की आम पत्नियों की तरह ऊब, तनहाई, खीज, नर्स और पैसों के अनपच की मारी। कभी-कभी जायका बदलने ‘इंस्पेक्शन’ की मुद्रा में क्लीनिक आती हैं, तो अक्सर हलचल मच जाती है। परन्तु उस दिन एक विचित्र बात देखने को मिली। अधिकार प्रमत्त भाव से अपने कंधों तक कटे बालों को झटकती जब वे क्लीनिक की ‘जेनरल वार्ड’ से गुजरीं तो बेड नम्बर तीन की एक फूल सी गँवई, मिठबोली औरत, जो प्रायः एक महीने से मृत्यु की कगार पर खड़ी होने के बावजूद, किसी को भी देखकर मुस्कुरा पड़ने को अपनी सरलता के कारण स्नेह-पात्र हो गयी थी, बड़े उत्साह से उमगकर उठ बैठी। पूरे वार्ड की मुँहबोली ‘माँ जी’ का देवरनुमा लंगड़ा अटेण्डेंट भी उधर ही देखता बगल की कुर्सी छोड़कर कुछ इस तरह खड़ा हो गया कि मैडम बस अब यहीं आकर तो बैठने वाली हैं। एक मिनट के लिए वे चौंक गये, क्योंकि मैडम अपने ही विचारों में मग्न जैसे आयी थीं वैसे ही चली गयीं तो दोनों झेंपकर थोड़ी लज्जा-सी मुस्कान लिये अपनी-अपनी जगहों पर जड़ हो गये।
दस मिनट बाद सफाई-सी देती स्त्री बोली- ‘‘कितनी ख़ूबसूरत है देवरानी हमारी। इतने बड़े घर की बेटी हमारे घर आकर ऐसी घुल मिल गयी जैसे दूध में चीनी। शुरू के दिनों में जब मेरे पति ज़िन्दा थे हर परब-त्योहार में जो मैं पहना दूँ, चुपचाप पहन लेती थी, गऊ-सी सीधी। तब तो बबुआ पढ़ते ही थे ना। पढ़ाई पूरी कर लिहिन तो लिवा लाये शहर, बहुरिया बिना चलता कैसे। अब डाक्टरी का जोर-बड़े लोगन की बीबी को निभाना भी बहुत पड़ता है-ओहिके धुन में रही होंगी बेचारी सो जल्दी-जल्दी निकल ली। बबुआ मगर सुबह-शाम आकर देख तो जाते हैं-उनके चलाये इतने दिन चल गये हम। आगे भगवान मालिक। हमरे बाद तो गाँव के जमीन की देख-रेख भी बेचारिन के कंधे पर ही आ गिरेगी। हई जो साथ हमारे अटेण्डेन आये हैं कोई सगे तो नाहीं हैं न, पड़ोस के हैं-मगर इन्होंने भी खूब ही निबाही। हमरे संग तो सब अच्छे ही रहे।’’ इतना कहती-कहती माँ जी हाँफकर उठी, तो गश खाकर गिर पड़ी।
थोड़ी देर में डाक्टर रतन लाल आये तो अंडर सेक्रेटरी की माँ की देखभाल से इतने थके थे कि अब यह केस देखने की हिम्मत न थी। तीन सौ रूपये डाक्टर प्रताप को थमाकर फुसफुसाकर कहा कि पर्सनल केयर ले लें, और ब्लड का इन्तजाम करा दें, बड़ी प्यारी भाभी हैं। आज शायद ‘माँ जी’ न बचें। अब-तब की हालत है। आज पूरे अस्पताल में उदासी विशाल, मनहूस पंख फैलाये भटक रही है। पुराने मरीज़ों से एक वास्ता तो हो ही जाता है। डाक्टर रतनलाल जी का मन तो न था कि अपनी इस ‘मरीज़’ को ऐसे हालत में छोड़कर आई.एम.ए. में लेक्चर देने चल दें-मगर चीफ मिनिस्टर आने वाले थे, वहाँ रुकते तो कैसे रुकते। बहुत सोच-विचार कर गहरे द्वंद्व के बाद उन्होंने गाड़ी स्टार्ट की तो एक बार माँ जी का हाथ उठा, मानो आशिष देना बाक़ी हो, फिर जो गिरा लगा कि एक मुरझाये पेड़ की वह अंतिम डाल टूट गिरी हो जिस पर कभी फूल आते थे और चिड़ियों का पूरा हुजूम बसता था।
उसके ठीक पाँच मिनट बाद जब उधर विशिष्ट चिकित्सक रतनलाल जी के सम्मान में सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था-भौजी ने भी उन्हें आख़िरी आशिष दे दिया।
डॉ0 प्रदीप कुमार अग्रवाल
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