अम्बर से सूरज रोज नया संदेश सुनाता
धरती को पहरे पर विधु को बैठाकर मैं चला,
जला तुम दीपक को।
रजनी का आँगन खाली हो नहीं ये अभीष्ट होगा
मुझको इसलिए सजाया तारों को पर
तुम भी जला लो दीये को।
मैं जब आता दिन हो जाता अभिसार अधूरा है
अबतक सदियों से हूँ मैं निराकांक्ष पर
फिर आऊँगा मिलने को।
जंगम है तू मैं स्थावर तुम चिर ऊर्वरा मैं
यायावर मैं देख रहा पर शून्य रहा
तुम धन्य धरा पा दीपक को।
विनिमय की भी शर्तें होतीं मैं निभा गया
तू निभा रही तू भी जड़ हो मैं भी जड़ हूँ
पा धन्य हुई जड़ दीपक को।
जड़ से चेतन को राग मिले चेतन से जड़ को
अभिनन्दन मानव तम के उस पार चले दिनकर
दीपक को करे नमन।
मिट्टी से बनकर सुघड़ दीया रीता रखता
हर पल तन को बाला, वनिता, बच्चे, बूढ़े भर
स्नेह जलाते दीपक को ।
सबके चत्वर में चौरा हो हर चौरे में वृन्दा-क्षुप हो
उस पर जलता एक दीपक हो पल-पल,
नव-नव जलता रूप हो।
दीपक देता संदेश नया तिल-तिल जलना
पल-पल देना पुरुषार्थ तुम्हारा वरण-योग्य मुझको
आँधी से क्या लेना।
विन्ध्याचल पाण्डेय "मधुपर्क"
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