कोई करता है सवाल, मुझसे -
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आज़ादी के बुनियादी हक़ के तुम तरफदार ,
पैरोकार तुम इन्साफ के,
अक्सर बोलते - लिखते हो आदमी के हक़ में -
तुम्हारे होठ - कागज़ - कलम,
सिद्धांतों की वकालत करते
अक्सर लांघते हदें - बन्धु ,
यह सब कब घुलेगा तुम्हारे रक्त में
तुम्हारी कथनी कब बनेगी तुम्हारा स्वभाव ?
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तुम एकनिष्ठ व्रतचारी , मीमांसक , तत्वचेता
तुम्हारे सामने उफान पर धार्मिक उन्माद बन्धु ,
तुम्हारा सर्व शक्तिमान तुम्हारी विनती पर रीझ
क्यों नहीं करता ध्वंस्त
जन विरोधी प्रपंची - विभेदकारी तंत्र -
तुम्हारी सक्रिय सहभागिता पाकर -
अपने आराध्य की नीयत में तुम देखते हो , कोई खोट ?
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तुम मनुष्य , धर्म तुम्हारा मनुष्यता ,
फिर क्यों मामूली उकसावे पर , उभर आते हैं ,
तुम्हारी हरकतों में
लोमड़ी - कुत्ते - सियार - बन्धु,
जब - तब , घर - बाहर,
हर - कहीं तुमसे क्यों अक्सर छूट जाती है इंसानियत ?
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काटने-मारने -दबोचने -चबाने -चूसने - में
तुम पाते हो आनंद
समता-ममता, करुणा-न्याय, समन्वय-समंजन
स्वभाव नहीं बना तुम्हारा
अपकर्मों के प्रति आकर्षण, आनंद तुम्हारे कुत्सित
बन्धु , सोचो ना , कितना मुश्किल है मेरे लिए
तुम्हारा नाम दर्ज करना इंसानों की सूची में ?
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सिनेमा हॉल से निकल, तुम भूलते हो नायक के डायलाग
मुखस्थ रहते हैं खलनायक के कथन, उसकी अदाएँ
तुम्हारे वजूद में विद्यमान पशुता,
आवरण में छिपी कुटिलता सहित तुम्हें
बन्धु , मैं मान नहीं पाता मनुष्य ?
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***** मित्रेश्वर अग्निमित्र
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