तेरी अंगड़ाई से घायल उस पर तेरा ये इतराना
संतोष तुझे कितना होगा गर हो
जाऊँ मैं दीवाना।
पलकों की
नींद पहाड़ों पर जम गई बर्फ की
परतों पर
शायद सदियों के बाद बहे तेरा हँसना,
मेरा रोना।
तन है धरती, मन है अम्बर हम दोनों में कितना अंतर
लम्हा जीता सदियाँ हारी आवारा पत्थर मत छूना।
क्षण की क्षणिका बनकर आई कण की कणिका
बन चली गई
पावस आँखों में ठहर गया आगे जग को तू मत छलना।
क्रौंच करुण हो चला गया
अभिशप्त व्याध हो क्यों
गया
उस दिन जाने तुम क्यों रोई इसके आगे फिर क्या लिखना।
*****विन्ध्याचल
पाण्डेय "मधुपर्क"