Wednesday, February 12, 2014

तुम (एक मुक्तछंद कविता)

तुम ------ 
तुम, 
और तुम्हारा होना ...... 
एक एहसास की सिहरन, 
एक मीठा सा ताना बाना, 
एक ख्वाब जो आँखों की झील में - 
खिलता हुआ एक नील कमल, 
बर्फ की सफ़ेद पहाड़ों पे, 
नाचती सूरज की किरणें।
तुम्हारा होना...... 
दिल के कोने में धड़कता हुआ एक और दिल, 
चाँद से चेहरे को ख़ूबसूरत बनाता एक काला-सा तिल, 
समंदर के उफान को बँधता हुआ एक साहिल, 
बादलों के परों पर धुनी हुयी ख्व़ाहिश, और - 
फूलों की क्यारियों में उड़ती हुयी तितलियाँ। 
तुम्हारा होना..... 
खरगोश के फरों-सा मुलायम-मुलायम एहसास, 
चन्दन के जंगलों से चुराया हुआ श्वास, 
ख़ुद पे ख़ुद का ख़ुद से किया हुआ विश्वास, 
अपने को अपने में अपनी तरह से पाने का प्रयास। 
तुम्हारा होना.... 
सुबह से शाम तक फैला हुआ उजियारा, 
रात में बिखरी हुयी चाँदनी का नीरव विस्तार, 
सितारों की झिलमिलाती रौशनी - 
और खिलखिलाती वो हवा, 
जो जीवन की है बेहद ख़ूबसूरत-सी दवा। 
तुम्हारा होना........ 
मेरे होने का ख़ूबसूरत-सा एहसास, 
मेरे वजूद का एक लम्स, 
मुझमे सिमटा हुआ मेरा ही ख़ुद।

 - नीहार

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